कानपुर में छोटे बच्चों और किशोरों में स्मार्टफोन के बढ़ते इस्तेमाल ने विशेषज्ञों और डॉक्टरों को गंभीर चिंता में डाल दिया है। शहर के कई घरों में अब यह सामान्य बात हो गई है कि बच्चा बिना वीडियो देखे खाना नहीं खाता या असाइनमेंट पूरा करने के लिए हर कदम पर मोबाइल का सहारा लेता है। कई अभिभावक भी अनजाने में इस आदत को बढ़ावा देने लगे हैं, क्योंकि इससे बच्चे कुछ समय के लिए शांत रहते हैं और घर के कामकाज निपटाना आसान हो जाता है। लेकिन विशेषज्ञों का कहना है कि यह चलन केवल सुविधा भर नहीं है, बल्कि बच्चों के मानसिक और सामाजिक विकास पर इसका गंभीर नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है।
घरों में कई माता पिता का मानना है कि स्मार्टफोन से बच्चे खुद ही बहुत कुछ सीख लेते हैं, लेकिन विशेषज्ञों के अनुसार यही सोच सबसे बड़ी गलती है। बहुत कम उम्र में स्क्रीन की लत लगने से बच्चे अपने आसपास की दुनिया से दूर होते जा रहे हैं और पढ़ाई, सोचने की क्षमता और भावनात्मक संतुलन में गिरावट आ रही है। ऑनलाइन क्लास, इंटरनेट पर मौजूद असाइनमेंट और सोशल मीडिया के बढ़ते प्रभाव ने बच्चों में डिजिटल निर्भरता को और तेज कर दिया है। कई बच्चे अपनी असली जिंदगी की तुलना वर्चुअल दुनिया से करने लगते हैं, जिसके कारण उनमें आत्मसम्मान की कमी, अकेलापन और भावनात्मक अस्थिरता बढ़ती है।
ह्यूमन डेवलपमेंट एंड कैपेबिलिटी एसोसिएशन द्वारा किए गए अंतरराष्ट्रीय अध्ययन में यह पाया गया कि जिन किशोरों को बारह वर्ष की उम्र से पहले अपना स्मार्टफोन मिल गया था, उनमें बड़े होने पर मानसिक तनाव, सामाजिक अलगाव और आत्महत्या के विचारों की संभावना अधिक पाई गई। यह अध्ययन जर्नल ऑफ ह्यूमन डेवलपमेंट एंड कैपेबिलिटीज में प्रकाशित है, जिसमें बताया गया है कि कम उम्र में वर्चुअल दुनिया का अधिक प्रभाव मस्तिष्क के विकास को बाधित करता है और वास्तविक और डिजिटल दुनिया के बीच फर्क करने की क्षमता कमजोर होती है।
कानपुर के जीएसवीएम मेडिकल कॉलेज के मनोरोग विभागाध्यक्ष डॉ. धनंजय चौधरी का कहना है कि उनके विभाग की ओपीडी में हर दिन लगभग साठ बच्चे और किशोर ऐसे पहुंच रहे हैं जो अधिक स्क्रीन टाइम की वजह से मानसिक और व्यवहारिक समस्याओं का सामना कर रहे हैं। उनके अनुसार अत्यधिक स्क्रीन टाइम का असर बच्चों की सोचने समझने की क्षमता पर सीधा पड़ता है। इसके कारण तनाव, चिड़चिड़ापन और गुस्सा तेजी से बढ़ रहा है। उन्होंने नौबस्ता और कल्याणपुर के दो बच्चों के उदाहरण देते हुए बताया कि एक बच्चा बिना वीडियो देखे खाना नहीं खाता था और फोन न मिलने पर खुद को नुकसान पहुंचाने की कोशिश करता था। दूसरे बच्चे में कई घंटों तक वीडियो देखने की वजह से आंखों की रोशनी और शारीरिक विकास दोनों प्रभावित हुए थे। इन मामलों का उपचार बाल रोग, मनोरोग और नेत्र रोग विभाग की संयुक्त देखरेख में चल रहा है।
छत्रपति शाहू जी महाराज विश्वविद्यालय के क्लिनिकल साइकोलॉजी विभाग के असिस्टेंट प्रोफेसर सृजन श्रीवास्तव बताते हैं कि जिन बच्चों ने आठ से बारह वर्ष की उम्र में बिना निगरानी के मोबाइल का उपयोग शुरू किया, उनमें भावनात्मक अस्थिरता, चिड़चिड़ापन, ध्यान भटकना, सामाजिक दूरी और नींद की समस्या तेजी से बढ़ी है। उनके अनुसार ओपीडी में आने वाले कई बच्चे बताते हैं कि मोबाइल फोन न होने पर उन्हें बेचैनी और खालीपन महसूस होता है, जो डिजिटल निर्भरता के शुरुआती संकेत हैं। कुछ किशोर साइबरबुलिंग, सोशल मीडिया तुलना और लाइक्स के दबाव के कारण कम आत्मसम्मान और आत्म क्षति जैसे विचारों का अनुभव भी करने लगे हैं। विशेषज्ञ बताते हैं कि विकसित होता हुआ मस्तिष्क अत्यधिक स्क्रीन उत्तेजना को सहन नहीं कर पाता, जिससे नींद का चक्र भी बिगड़ने लगता है।
यूनिसेफ की एक रिपोर्ट भी इस खतरे की पुष्टि करती है। इसमें बताया गया है कि कम उम्र में डिजिटल प्लेटफार्म की पहुंच बच्चों में साइबरबुलिंग, सामाजिक तुलना और डिजिटल नशे जैसी आदतों की संभावना बढ़ा देती है। हालांकि आक्सफोर्ड इंटरनेट इंस्टीट्यूट द्वारा 2020 में प्रकाशित शोध में स्क्रीन टाइम और किशोर कल्याण के बीच कमजोर संबंध बताया गया है, लेकिन विशेषज्ञों का कहना है कि वास्तविक अंतर परिवार के वातावरण, पालन पोषण की शैली और बच्चे की भावनात्मक संवेदनशीलता से तय होता है।
समाजशास्त्री अनूप कुमार सिंह कहते हैं कि आज की पीढ़ी में टेक संस्कार तेजी से बढ़ रहे हैं और यह बच्चों के व्यक्तित्व विकास के लिए बड़ी चुनौती है। उन्होंने कहा कि सबसे पहले माता पिता को अपने व्यवहार में बदलाव लाना होगा। काम से घर लौटने के बाद जरूरत पड़ने पर ही मोबाइल का इस्तेमाल किया जाए ताकि बच्चों में भी यही आदत विकसित हो। वे सुझाव देते हैं कि सप्ताह में एक दिन जीरो गैजेट डे रखा जाए और स्कूलों को भी चाहिए कि असाइनमेंट व्हाट्सऐप या टेलीग्राम जैसे माध्यमों पर भेजने के बजाय अभिभावकों की उपस्थिति में बच्चों से काम करवाएं।
विशेषज्ञों ने अभिभावकों को बच्चों को डिजिटल खतरे से बचाने के लिए कुछ उपाय अपनाने की सलाह दी है। इनमें किशोरावस्था तक बच्चों को स्मार्टफोन न देना, बाहर खेलने और सामाजिक गतिविधियों को बढ़ावा देना, स्क्रीन टाइम की सीमाएं तय करना, ऑनलाइन अनुभवों के बारे में खुलकर बात करना और पेरेंटल कंट्रोल का उपयोग शामिल है। साथ ही बच्चों को डिजिटल वेलनेस और सुरक्षित ऑनलाइन व्यवहार के बारे में जागरूक करना जरूरी है। परिवार और स्कूल दोनों मिलकर ऐसी गतिविधियों को बढ़ावा दें जिनमें बच्चे बिना स्क्रीन के समाज से जुड़ने और संवाद करने की कला सीख सकें।
कानपुर में छोटे बच्चों और किशोरों में स्मार्टफोन की लत, विशेषज्ञों ने जताई गहरी चिंता

कानपुर में बच्चों द्वारा स्मार्टफोन के बढ़ते उपयोग से उनके मानसिक व सामाजिक विकास पर नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है, विशेषज्ञ चिंतित हैं।
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