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मधुबनी की दुलारी देवी: दर्द से पद्मश्री तक का सफर, बेटी की याद में कला

मधुबनी की दुलारी देवी: दर्द से पद्मश्री तक का सफर, बेटी की याद में कला

मधुबनी की पद्मश्री दुलारी देवी ने जीवन के संघर्षों को कला में ढालकर प्रेरणादायक मिसाल कायम की है, जो आज 80 बच्चों को मधुबनी पेंटिंग सिखाती हैं।

बिहार के मधुबनी जिले के रांटी गांव की मशहूर लोक कलाकार दुलारी देवी ने अपनी जिंदगी के दर्द को रंगों में पिरोकर ऐसी मिसाल कायम की है, जो न केवल कला बल्कि मानवीय संघर्ष की प्रेरणादायक गाथा बन चुकी है। मल्लाह समुदाय से आने वाली दुलारी देवी ने गरीबी, समाज की कठिनाइयों और निजी दुखों को अपनी कला की ताकत बना लिया। आज वह पद्मश्री से सम्मानित हैं और मिथिला इंस्टीट्यूट में 80 बच्चों को मधुबनी पेंटिंग की शिक्षा दे रही हैं। उनकी हर पेंटिंग में एक बच्चा होता है, जो उनकी दिवंगत बेटी शकुंतला का प्रतीक है।

दुलारी देवी का जीवन संघर्षों से भरा रहा। बचपन में ही उन्होंने पिता को खो दिया, और मां के साथ मजदूरी करके परिवार चलाया। तालाब में मछलियां पकड़ने और मखाना निकालने के काम से लेकर भूख और गरीबी तक का सामना किया। महज 12 साल की उम्र में शादी हुई, लेकिन ससुराल में पति के अत्याचार और गरीबी ने जीवन को और कठिन बना दिया। कई बार पति ने आधी रात को घर से निकाल दिया, और आखिरकार सात साल बाद दुलारी ने ससुराल छोड़कर मायके लौट आने का फैसला लिया। यहीं उनकी जिंदगी की नई शुरुआत हुई, जब बेटी शकुंतला का जन्म हुआ। वही बेटी उनके जीवन की सबसे बड़ी खुशी बनी, लेकिन किस्मत को कुछ और मंजूर था। टायफाइड से बेटी की मृत्यु ने उनकी दुनिया ही उजाड़ दी।

बेटी की मौत के बाद टूट चुकी दुलारी को जीवन की राह फिर मिली जब गांव के कलाकार कर्पूरी माझी ने उन्हें अपने यहां काम करने का अवसर दिया। वहीं से उन्होंने मधुबनी पेंटिंग सीखनी शुरू की। शुरू में वह कर्पूरी माझी के घर सफाई और खाना बनाने का काम करती थीं, बदले में उन्हें कुछ रुपए और रोटियां मिलती थीं। लेकिन धीरे-धीरे उन्होंने पेंटिंग में हाथ आजमाना शुरू किया। ग्रीटिंग कार्ड से लेकर कपड़े और साड़ियों पर पेंटिंग बनाने तक, उन्होंने अपनी कला को एक पहचान दी। यही कला धीरे-धीरे उनका जीवन बन गई।

समय के साथ उनकी पेंटिंग्स ने पहचान बनाई। एक बार बिहार सरकार की ओर से चेन्नई में एक कार्यक्रम में उन्हें आमंत्रित किया गया, जहां उन्होंने अपनी जिंदगी की कहानी को चित्रों में उकेरा। वह पेंटिंग बाद में एक किताब के रूप में प्रकाशित हुई, जिससे उन्हें 14 वर्षों से रॉयल्टी मिल रही है। आज उनके घर की दीवारें भी मधुबनी की सुंदर पेंटिंग्स से सजी हैं, जिनमें मछलियां, बांस, मखाना और नाव जैसे प्रतीक उनके जीवन और समुदाय की झलक देते हैं। वह कहती हैं, "मेरे जीवन में बहुत कुछ खाली था, इन्हीं रंगों ने भरा। रंग ही मेरे जीवन की सांस हैं।"

वर्ष 2021 में दुलारी देवी को मधुबनी पेंटिंग में योगदान के लिए पद्मश्री सम्मान मिला। सम्मान के उस क्षण को याद करते हुए वह कहती हैं कि उनके जीवन का हर दर्द उस दिन आंखों से बह निकला। आज वह मिथिला इंस्टीट्यूट में 80 बच्चों को मधुबनी पेंटिंग सिखा रही हैं। उनका मानना है कि यह कला केवल चित्रकला नहीं, बल्कि मिथिला की आत्मा है जिसे नई पीढ़ी तक पहुंचाना आवश्यक है। दुलारी देवी की कहानी यह साबित करती है कि जब इंसान अपने दुख को अभिव्यक्ति में बदल देता है, तो वही कला बनकर दुनिया को प्रेरित करती है।

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