वाराणसी, जिसे शास्त्रों की प्राचीन नगरी के रूप में दुनिया भर में पहचान मिली है, अब तीरंदाजी के क्षेत्र में भी अपनी पहचान मजबूत करने की जरूरत महसूस कर रही है। शहर की पहचान सदियों से ज्ञान, शिक्षा और आध्यात्मिक धरोहर से जुड़ी रही है, लेकिन इसके साथ ही शस्त्र कौशल का इतिहास भी उतना ही समृद्ध रहा है। प्राचीन समय में तीरंदाजी को युद्ध कला और अनुशासन के महत्वपूर्ण प्रतीक के रूप में सम्मान दिया जाता था। यही कारण है कि विशेषज्ञ अब मानते हैं कि काशी को शास्त्र के साथ शस्त्र की इस परंपरा को भी आगे बढ़ाने की आवश्यकता है। खास तौर पर महिलाओं के लिए यह खेल एक मजबूत करियर विकल्प बन सकता है।
तीरंदाजी दुनिया के सबसे प्राचीन खेलों में शामिल है और इसका साक्ष्य पुरापाषाण काल में लगभग दस हजार वर्ष पूर्व का मिलता है। भारतीय संस्कृति में इस कला का उल्लेख रामायण और महाभारत जैसे महाकाव्यों में मिलता है। भगवान राम, भगवान परशुराम, अर्जुन, कर्ण, एकलव्य, भीष्म पितामह और द्रोणाचार्य जैसी विभूतियों को धनुर्धारी के रूप में दर्शाया गया है। इस परंपरा में महिलाओं का भी उल्लेख मिलता है। देवी दुर्गा को धनुष और बाण के साथ दर्शाया जाता है। वायु देव से प्राप्त यह दिव्य अस्त्र उनके युद्ध कौशल का प्रतीक माना जाता है। महाभारत में भगवान कृष्ण की पत्नी सत्यभामा के साथ साथ अर्जुन की पत्नी चित्रांगदा जैसी योद्धा महिलाएं भी तीरंदाजी में दक्ष थीं। यह बताता है कि भारतीय समाज में महिलाओं की भूमिका केवल घर तक सीमित नहीं थी बल्कि वे युद्ध कौशल में भी आगे थीं।
आज की स्थिति देखें तो महिलाओं का रुझान तीरंदाजी में उतना नहीं देखा जाता जितना होना चाहिए। हालांकि भारत की महिला तीरंदाजी टीम ने 2004 के एथेंस ओलिंपिक में पहली बार हिस्सा लेकर देश का नाम दर्ज कराया था और टीम ने सम्मानजनक आठवां स्थान हासिल किया। उस दौर में खिलाड़ियों को सुविधाएं सीमित थीं। ओलिंपिक से लौटने पर पांच हजार रुपये का प्रोत्साहन मिलता था जबकि आज सहभागिता भर पर भी खिलाड़ियों को बड़ी आर्थिक सहायता मिलती है। सरकार स्कूल स्तर पर प्रतियोगिताओं में भी लाखों रुपये खर्च कर रही है जिससे खिलाड़ियों को अवसर मिल सके। विशेषज्ञों का कहना है कि इन सुविधाओं का लाभ तभी संभव है जब अभिभावक अपनी बेटियों को खेल के लिए प्रेरित करेंगे। तीरंदाजी ऐसा खेल है जिसमें विशेष कद काठी की जरूरत नहीं होती और मन लगाकर प्रशिक्षण लेने पर लड़कियां उच्च स्तर तक पहुंच सकती हैं।
वाराणसी में खेल सुविधाएं बढ़ रही हैं लेकिन अफसोस है कि तीरंदाजी को अभी भी पर्याप्त स्थान नहीं मिल पाया है। कुछ प्राइवेट अकादमियां इस खेल को आगे बढ़ाने की कोशिश कर रही हैं लेकिन बड़े पैमाने पर प्रशिक्षण देने के लिए उपयुक्त मैदान और संरचना का अभाव है। कुछ संस्थाएं बालिकाओं को तीरंदाजी का परिचय कराती हैं लेकिन उन्हें प्रतियोगी खिलाड़ी के रूप में तैयार करने की व्यवस्था पर्याप्त नहीं है। जबकि यह खेल ओलिंपिक में नौ मेडल देता है और भारत की बेटियां कुश्ती, जूडो, बाक्सिंग और शूटिंग जैसे कठिन खेलों में लगातार पदक जीत रही हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि तीरंदाजी में वाराणसी की लड़कियां क्यों पीछे रहें।
सोनभद्र के स्पोर्ट्स हॉस्टल में तीरंदाजी कोच के रूप में कार्यरत बरेली की एक प्रशिक्षक का कहना है कि अगर उन्हें वाराणसी की खिलाड़ी लड़कियों को प्रशिक्षण देने का मौका मिले तो वे अपने अनुभव से उन्हें अंतरराष्ट्रीय स्तर का प्रशिक्षण दे सकती हैं। उनका मानना है कि यहां की बेटियों में दम है और अगर बेहतर कोच के साथ थोड़ी सी जगह और व्यवस्थित सुविधा मिल जाए तो वे इस ऐतिहासिक खेल में भी अपना परचम लहरा सकती हैं। काशी ने हमेशा ज्ञान की रोशनी दुनिया तक पहुंचाई है और अब समय है कि वह अपने प्राचीन शस्त्र कौशल की परंपरा को भी नई पीढ़ी के हाथों में सौंपे।
वाराणसी को तीरंदाजी में पहचान बनाने की जरूरत, महिलाओं के लिए सुनहरा अवसर

वाराणसी को ज्ञान के साथ शस्त्र परंपरा में भी पहचान बनानी चाहिए, तीरंदाजी महिलाओं के लिए बेहतर करियर विकल्प बन सकती है.
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