Sat, 11 Oct 2025 20:55:15 - By : SANDEEP KR SRIVASTAVA
प्रयागराज: इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ पीठ ने जगतगुरु स्वामी राम भद्राचार्य दिव्यांग विश्वविद्यालय, चित्रकूट के कुलपति स्वामी राम भद्राचार्य के खिलाफ इंटरनेट मीडिया पर प्रसारित हो रहे कथित आपत्तिजनक वीडियोज़ के मामले में कड़ा रुख अपनाया है। न्यायमूर्ति शेखर बी. सराफ एवं न्यायमूर्ति प्रशांत कुमार की खंडपीठ ने याचियों द्वारा प्रस्तुत URL लिंक्स मिलने के बाद मेटा प्लेटफार्म्स इंक और गूगल एलएलसी को आदेश दिया है कि वे याचियों द्वारा बताए गए संबंधित वीडियो/सामग्री को 48 घंटे के भीतर हटा दें। मामले की अगली सुनवाई 11 नवंबर को नियत की गई है। यह आदेश शरद चंद्र श्रीवास्तव व अन्य द्वारा दायर याचिका पर निर्गत किया गया है और उच्च न्यायालय ने मीडिया प्लेटफार्मों तथा संबंधित व्यक्तियों दोनों पर जवाबदेही का दृष्टांत प्रस्तुत किया है।
याचिका में आरोप है कि गोरखपुर के यूट्यूबर व फेसबुक-इंस्टाग्राम चैनल संचालक संपादक शशांक शेखर ने 29 अगस्त से अपने यूट्यूब चैनल और अन्य इंटरनेट मीडिया प्लेटफार्मों पर स्वामी राम भद्राचार्य के विरुद्ध अपमानजनक और अवमाननाजनक वीडियो पोस्ट किए हैं। याचिका में बताया गया है कि उक्त वीडियो, जिसका शीर्षक बताया गया है "राम भद्राचार्य पर खुलासा -16 साल पहले क्या हुआ था", में स्वामी जी की जन्मजात दृष्टि-दोष (दिव्यांगता) का जिक्र कर के उनकी गरिमा को ठेस पहुँचाने वाले और अवमाननाजनक कंटेंट दिखाए जा रहे हैं। याचियों ने इस सामग्री को तुरंत हटाने की मांग करते हुए केंद्र व राज्य सरकारों से इंटरनेट मीडिया प्लेटफार्मों पर नियंत्रण और नियम बनाने तथा उनके सख्ती से पालन कराने की भी गुहार लगाई है।
पेश किए गए तथ्य और दलीलों पर सुनवाई के दौरान कोर्ट ने इस मामले की संवेदनशीलता पर स्पष्ट संज्ञान लिया और प्रथम दृष्टया यह देखा कि प्रयुक्त सामग्री दिव्यांग व्यक्तियों की गरिमा एवं सम्मान के संबंध में हस्तक्षेप का विषय बनती है। इसलिए यह मामला दिव्यांगों के हित में काम करने वाले स्टेट कमिश्नर (राज्य दिव्यांग आयुक्त) की संज्ञान लेने योग्य भी माना जा सकता है। उच्च न्यायालय ने पहले भी 17 सितंबर को याचिका पर संज्ञान लेते हुए फेसबुक, इंस्टाग्राम, गूगल और यूट्यूब को नोटिस जारी किया था तथा इन प्लेटफार्मों के शिकायत निस्तारण अधिकारियों (grievance redressal officers) को निर्देश दिया था कि वे एक सप्ताह के अंदर याचियों द्वारा बताए गए वीडियो के विरुद्ध अपना प्रत्यावेदन (रिप्लाई) सौंपें और साथ ही तत्काल प्रभाव से उक्त आपत्तिजनक वीडियो हटाने की कार्रवाई को सुनिश्चित करें।
अदालत ने केवल प्लेटफार्मों को निर्देश ही नहीं दिया बल्कि मामले में कार्रवाई के लिए राज्य के उस स्तंभ को भी सक्रिय करने का आग्रह किया जो दिव्यांगों के अधिकारों और गरिमा की रक्षा के दायरे में आता है। कोर्ट ने स्टेट कमिश्नर को निर्देश दिए जाने की भी बात कही है ताकि फेसबुक-इंस्टाग्राम चैनल चलाने वाले संपादक शशांक शेखर से स्पष्टीकरण माँगा जा सके और आवश्यकतानुसार उनके खिलाफ उपयुक्त कानूनी या प्रशासनिक कदम उठाए जा सकें। इस क्रम में हाईकोर्ट ने प्लेटफार्मों की शिकायत निस्तारण प्रक्रियाओं की प्रभावीता और ऑनसाइट मॉडरेशन/टेकडाउन मैकेनिज़्म पर भी सवाल खड़े किए हैं। यह संकेत देते हुए कि डिजिटल माध्यमों पर केंद्रित शिकायतों के त्वरित समाधान का अस्तित्व लोकतांत्रिक समाज के लिये आवश्यक है।
मामले की संवेदनशील प्रकृति, यहां तक कि विषय में निहित सामाजिक-नैतिक पहलू , जैसे कि दिव्यांग व्यक्तियों की गरिमा व उनके सम्मान की सुरक्षा पर अदालत के निर्देशों ने एक व्यापक बहस का मार्ग प्रशस्त किया है कि ऑनलाइन प्लेटफार्मों की जवाबदेही, शिकायत निस्तारण तंत्र की पारदर्शिता और राज्य/केंद्र द्वारा बनाए जाने वाले नियमन किस प्रकार प्रभावित और संतुलित किए जाने चाहिए। याचियों की ओर से उठाए गये अनुरोधों में यह भी शामिल है कि केवल व्यक्तिगत पोस्ट हटाने से आगे जाकर सरकारें नियम बनाकर इस तरह के अग्रिम और व्यवस्थित दुरुपयोग को रोकें, ताकि किसी भी संवेदनशील समूह-वर्ग का अपमान ऑनलाइन माध्यमों के दुरुपयोग से दोबारा न हो।
अधिनियमिक और प्रक्रियात्मक पहलुओं के साथ, कोर्ट ने स्पष्ट निर्देश दिये हैं कि याचियों से प्राप्त URLs पर त्वरित कार्रवाई की जाए, और यदि प्लेटफार्मों ने सप्ताह भर के भीतर संतोषजनक प्रत्यावेदन प्रस्तुत नहीं किया या नियमों के अनुरूप कार्रवाई नहीं की तो अदालत कठोर कदम उठाने पर विचार कर सकती है। अब आगे की सुनवाई 11 नवंबर को निर्धारित है, जहाँ अदालत प्लेटफार्मों के द्वारा उठाए गए कदमों, स्टेट कमिश्नर की रिपोर्ट तथा याचियों के प्रस्तुत किये जाने वाले और साक्ष्यों पर विचार कर निर्णय देगी।
यह मामला न केवल एक व्यक्तिगत अपमानजनक वीडियो को हटाने का है बल्कि डिजिटल प्लेटफार्मों पर शोषण और अपमान के विरुद्ध उठती न्यायिक चेतना तथा दिव्यांगों के अधिकारों के संरक्षण के मानकों को परिभाषित करने की दिशा में भी मील का पत्थर बन सकता है। अदालत के उक्त निर्देशों के बाद यह देखना रोचक होगा कि इंटरनेट प्लेटफार्म अपनी शिकायत निस्तारण प्रणाली को किस तीव्रता से लागू करते हैं और संबंधित प्रशासनिक प्राधिकरण, विशेषकर राज्य-स्तर का दिव्यांग आयुक्त अपनी भूमिका कितनी सक्रियता से अदा करते हैं।