Fri, 24 Oct 2025 10:45:43 - By : Shriti Chatterjee
वाराणसी: काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के प्रोफेसर ज्ञानेश्वर चौबे को वाराणसी से लगभग 20 किलोमीटर उत्तर, अपने गांव चौबेपुर के पास गंगा नदी के तट पर एक अत्यंत दुर्लभ एकमुखी शिवलिंग प्राप्त हुआ है। बलुआ पत्थर से निर्मित यह प्रतिमा आकार, शैली और नक्काशी के आधार पर गुर्जर-प्रतिहार काल यानी नौंवी-दसवीं सदी ईस्वी की मानी जा रही है। विशेषज्ञों का कहना है कि यह खोज न केवल वाराणसी क्षेत्र की पुरातात्त्विक समृद्धि को उजागर करती है, बल्कि उस युग की शैव परंपरा और कलात्मक उत्कर्ष का भी सशक्त प्रमाण है।
यह दुर्लभ प्रतिमा प्रोफेसर चौबे को उस समय मिली जब वे अपने गांव के साथियों के साथ एक ग्रामीण के खेत में आयोजित दाह संस्कार में शामिल होने गए थे। प्रतिमा बलुआ पत्थर से बनी है और इसकी संरचना अत्यंत कलात्मक और सौम्य है। शिवलिंग के अग्रभाग में भगवान शिव का शांत मुख स्पष्ट रूप से उकेरा गया है। जटामुकुट, गोल कुंडल, गले की माला तथा सूक्ष्म नक्काशी इसके शिल्प कौशल को दर्शाती है। मूर्ति का ऊपरी भाग गोलाकार लिंग रूप में है जबकि आगे की दिशा में एकमुखी आकृति बनी हुई है, जो इसे अत्यंत विशिष्ट बनाती है।
प्राचीन मूर्ति का अध्ययन बीएचयू के पुरातत्वविद् डा. सचिन तिवारी, डा. राकेश तिवारी और प्रोफेसर वसंत शिंदे ने किया। उन्होंने इसे गुर्जर-प्रतिहार काल की उत्कृष्ट कलात्मक परंपरा का उदाहरण बताया है। डा. सचिन तिवारी ने कहा कि इस मूर्ति की नक्काशी और शिल्प शैली प्रतिहार काल की सौम्यता और कारीगरों की निपुणता का परिचायक है। वहीं, डा. राकेश तिवारी का कहना है कि गंगा तट पर इस तरह की मूर्तियों का मिलना यह संकेत देता है कि इस क्षेत्र में कभी एक सक्रिय शैव मंदिर या मठ विद्यमान रहा होगा।
प्रोफेसर वसंत शिंदे के अनुसार, यह खोज वाराणसी के पुरातात्त्विक परिदृश्य को एक नया आयाम प्रदान करती है। मूर्ति की शैली और पत्थर की प्रकृति से यह स्पष्ट होता है कि यह स्थानीय शिल्पियों द्वारा निर्मित प्राचीन कृति है, जो काशी-सारनाथ कला परंपरा से गहराई से प्रभावित है।
विशेषज्ञों ने माना है कि यह खोज वाराणसी और गंगा तटीय सभ्यता में शैव परंपरा के अध्ययन हेतु एक महत्वपूर्ण साक्ष्य है। प्रो. ज्ञानेश्वर चौबे ने बताया कि भविष्य में इस स्थल का वैज्ञानिक सर्वेक्षण और संरक्षण कार्य किया जाएगा, ताकि इस प्राचीन मूर्ति और उससे जुड़े क्षेत्र का व्यवस्थित अभिलेखन संभव हो सके। इस खोज से वाराणसी के ऐतिहासिक और धार्मिक परिदृश्य को समझने में एक नया अध्याय जुड़ गया है।