Fri, 10 Oct 2025 12:35:43 - By : Shriti Chatterjee
वाराणसी: भारत में हर साल सूर्य की रोशनी की अवधि में निरंतर गिरावट एक गंभीर चिंता का विषय बन गई है। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के प्रोफेसर मनोज कुमार श्रीवास्तव के नेतृत्व में किए गए नवीनतम अध्ययन में यह सामने आया है कि पिछले तीन दशकों में देश के लगभग सभी हिस्सों में सूर्यप्रकाश की अवधि में कमी हुई है। यह शोध भारतीय मौसम विज्ञान विभाग और भारतीय उष्णकटिबंधीय मौसम विज्ञान संस्थान के सहयोग से किया गया और इसे अंतरराष्ट्रीय प्रतिष्ठित पत्रिका 'साइंटिफिक रिपोर्ट्स' में प्रकाशित किया गया है।
शोध में वर्ष 1988 से 2018 के बीच देश के 20 प्रमुख मौसम केंद्रों से प्राप्त आंकड़ों का विश्लेषण किया गया। भारत को नौ भौगोलिक क्षेत्रों में बांटा गया – पूर्वी तट, पश्चिमी तट, उत्तरी अंतर्देशीय क्षेत्र, मध्य भारत, डेक्कन पठार, हिमालय, उत्तर-पूर्व, अरब सागर और बंगाल की खाड़ी। विश्लेषण में पाया गया कि सूर्यप्रकाश की अवधि में निरंतर गिरावट हो रही है। उत्तर भारत में यह गिरावट सबसे अधिक, 13.15 घंटे प्रति वर्ष, दर्ज की गई। इसके बाद हिमालय क्षेत्र में 9.47 घंटे, पश्चिमी तट पर 8.62 घंटे, पूर्वी तट पर 4.88 घंटे, मध्य भारत में 4.71 घंटे और डेक्कन पठार में 3.05 घंटे प्रति वर्ष की कमी देखी गई। अरब सागर और बंगाल की खाड़ी के द्वीप क्षेत्रों में भी क्रमशः 5.72 और 6.10 घंटे प्रति वर्ष की कमी दर्ज हुई है।
गिरावट के पीछे वायुमंडलीय प्रदूषण, एरोसोल्स की बढ़ती मात्रा, बादलों की अधिकता और तेजी से बढ़ता शहरीकरण मुख्य कारण हैं। इन सभी कारणों से सूर्य की किरणें पृथ्वी की सतह तक कम पहुंच रही हैं। वैज्ञानिक इस प्रक्रिया को 'सोलर डिमिंग' कहते हैं।
इस लगातार घटती धूप का असर भारत की सौर ऊर्जा क्षमता, कृषि उत्पादकता और पर्यावरणीय संतुलन पर पड़ रहा है। सौर ऊर्जा पर तेजी से निर्भर भारत में यह प्रवृत्ति विशेष चिंता का विषय है। शोधकर्ताओं का कहना है कि यदि वायु गुणवत्ता में सुधार किया जाए और आकाश को साफ रखने के उपाय किए जाएं, तो सौर ऊर्जा की दक्षता बढ़ाई जा सकती है। साथ ही, इससे जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से निपटने और सतत विकास की दिशा में भी मदद मिलेगी।
इस अध्ययन में प्रो. मनोज कुमार श्रीवास्तव के साथ डॉ. आरती चौधरी, भारत जी. मेहरोत्रा, डॉ. प्रदीप कुमार, डॉ. वीके सोनी और डॉ. अतुल कुमार श्रीवास्तव शामिल रहे। उनका यह शोध आने वाले वर्षों में भारत की जलवायु और ऊर्जा नीतियों के निर्धारण में महत्वपूर्ण आधार बन सकता है।