Mon, 04 Aug 2025 10:05:13 - By : SANDEEP KR SRIVASTAVA
रांची/नई दिल्ली: झारखंड की आत्मा, आदिवासी चेतना के पुजारी, संघर्ष की परिभाषा और राजनीति के तपे हुए योद्धा शिबू सोरेन अब नहीं रहे। सोमवार सुबह दिल्ली के गंगाराम अस्पताल में उन्होंने अंतिम सांस ली। 81 वर्षीय ‘दिशोम गुरु’ के नाम से पहचाने जाने वाले शिबू सोरेन का यह अवसान झारखंड की राजनीति, समाज और इतिहास के एक युग के पटाक्षेप जैसा है।
झारखंड के मुख्यमंत्री और उनके सुपुत्र हेमंत सोरेन ने जब सोशल मीडिया पर लिखा “आज मैं शून्य हो गया हूँ…”तो यह केवल एक बेटे का शोक नहीं था, यह पूरे झारखंड की आत्मा से निकली एक सिसकी थी। उनकी एक-एक सांस, एक-एक संघर्ष, झारखंड के अस्मिता आंदोलन की धड़कन रही है।
✍️धरतीपुत्र का जन्म, जो पत्थरों में भविष्य टटोलता था
11 जनवरी 1944 को बिहार (अब झारखंड) के नेमरा गांव में जन्मे शिबू सोरेन का बचपन मिट्टी, जंगल, और खून के साथ गुज़रा। उनके पिता सोरेन सगन की हत्या जब जमींदारों ने कर दी, तब नाबालिग शिबू ने बदले की भावना को शिक्षा और संगठन में ढाला। वे स्कूल गए, लेकिन पढ़ाई से ज़्यादा उन्हें अपने लोगों की पीड़ा दिखती थी। ‘अपना अधिकार लेने के लिए संगठित हो जाओ’ यही उनके जीवन का मंत्र बन गया।
✍️झारखंड आंदोलन का जन्म: जब 'जंगल के बेटे' ने गूंज बनाई
1972 में उन्होंने ए.के. रॉय और बिनोद बिहारी महतो के साथ मिलकर झारखंड मुक्ति मोर्चा (JMM) की स्थापना की। यह सिर्फ एक राजनीतिक संगठन नहीं, बल्कि आदिवासियों की आत्मा की आवाज़ थी। उन्होंने हजारों आदिवासियों को न सिर्फ जागरूक किया, बल्कि उन्हें उनके जल, जंगल, ज़मीन के अधिकारों के लिए खड़ा होना सिखाया। वे रेल की पटरियों पर जमे, सरकारों से भिड़े, और कभी झुकने का नाम नहीं लिया। उन्होंने नारा दिया“दिल्ली दूर नहीं, लेकिन आदिवासी अधिकार और भी पास है।”
✍️सत्ता की सीढ़ियाँ: संघर्ष से संसद तक का सफर
शिबू सोरेन ने राजनीति को कभी कुर्सी का साधन नहीं बनाया। उन्होंने उसे आवाज़ देने का माध्यम बनाया। 1980 से लेकर 2014 तक वे डुमका लोकसभा सीट से सात बार सांसद बने।
2004 में केंद्रीय कोयला मंत्री बने, पर विवाद के बाद इस्तीफा दिया, पर फिर वापसी की ताकत दिखाई। 2005, 2008, और 2009 में तीन बार झारखंड के मुख्यमंत्री बने। लेकिन उनकी सरकारें गठबंधनों की साजिशों की बलि चढ़ती रहीं।
एक बार तो वे केवल 10 दिनों के लिए मुख्यमंत्री रहे। मगर उनके लिए समय नहीं, संघर्ष की गहराई मायने रखती थी।
✍️विवादों की छाया में नायकत्व की ज्योति
राजनीति में ऊंचाइयों के साथ विवाद भी उनके हिस्से आए।शशीनाथ झा हत्याकांड ने उन्हें जेल तक पहुंचाया। लेकिन अंततः न्याय ने उन्हें निर्दोष ठहराया। उनकी छवि धूमिल नहीं हुई, बल्कि और भी निखरकर सामने आई।उनकी सादगी, ईमानदारी और आदिवासी प्रतिबद्धता ने विरोधियों को भी उन्हें 'आदिवासियों का गांधी' कहने पर मजबूर कर दिया।
✍️दिशोम गुरु: एक पिता, एक पथप्रदर्शक
उनका परिवार भी राजनीति का स्तंभ बन गया।हेमंत सोरेन, उनके उत्तराधिकारी के रूप में, आज झारखंड के मुख्यमंत्री हैं।दुर्गा सोरेन की असमय मृत्यु ने उन्हें तोड़ा लेकिन बिखरने नहीं दिया।बंसत सोरेन और अंजलि सोरेन ने भी पिता की परंपरा को आगे बढ़ाया।वे राजनीति में वंशवाद नहीं, उत्तरदायित्व की परंपरा लेकर आए।
✍️एक जीवन, जो इतिहास नहीं, किंवदंती बन गया
शिबू सोरेन सिर्फ एक नेता नहीं थे, वे जंगल की आवाज़, मिट्टी की महक और झारखंड की आत्मा थे।उन्होंने एक ऐसा आंदोलन खड़ा किया जो आज भी हर आदिवासी के दिल में धड़कता है।झारखंड राज्य की स्थापना में उनका नाम सोने की स्याही से लिखा जाना चाहिए।
✍️अब शब्द मौन हैं, पर संघर्ष बोलता रहेगा
आज जब शिबू सोरेन हमारे बीच नहीं हैं, उनकी सांसें अब भी झारखंड की हवा में हैं।उनके पदचिह्न जंगलों की पगडंडियों से लेकर संसद की चौखट तक गूंजते हैं।वे चले गए, लेकिन ‘दिशोम गुरु’ अब एक विचार बन चुके हैं, अमर, अटल, अद्वितीय।
शत् शत् नमन, दिशोम गुरु शिबू सोरेन। आपका यश और तप स्मृतियों में नहीं, हमारे संघर्षों में जिंदा रहेगा। "न्यूज रिपोर्ट"