विश्वविख्यात रामनगर रामलीला में श्रीराम-सीता का पावन विवाह संपन्न, हजारों दर्शक हुए भावविभोर

रामनगर रामलीला के सातवें दिन श्रीराम और माता सीता का पावन विवाह संपन्न हुआ, जिसमें हजारों दर्शक त्रेतायुग की दिव्यता के साक्षी बने।

Sat, 13 Sep 2025 08:26:50 - By : SANDEEP KR SRIVASTAVA

वाराणसी: रामनगर/विश्वविख्यात रामनगर रामलीला का सातवाँ दिन श्रद्धा, भक्ति और दिव्यता से परिपूर्ण रहा। इस दिन का मुख्य प्रसंग भगवान श्रीराम और माता सीता का पावन विवाह रहा, जिसने हजारों दर्शकों को अलौकिक अनुभूति कराई। ऐसा लगा मानो त्रेतायुग जीवंत होकर वर्तमान में उतर आया हो और प्रत्येक दर्शक उस दिव्य विवाह का साक्षी बन गया हो।

लीला की शुरुआत अयोध्या के राजदरबार से हुई, जहाँ मिथिला से आए जनकदूत ने महाराज दशरथ को विवाह का निमंत्रण पत्रिका सौंपी। इस दृश्य का मंचन अत्यंत हृदयस्पर्शी था। जनकदूत का पात्र निभा रहे बच्चन गुरुजी ने जब भावपूर्ण चौपाइयाँ उच्चारित कीं "देव देखि तव बालक दोऊ, अब न आँखि तर आवत कोऊ" तो पूरा वातावरण भक्ति भाव से भर गया। दर्शकों की आँखें नम हो गईं और एक क्षण के लिए हर कोई मिथिला और अयोध्या की उस पावन परंपरा का सहभागी बन गया।

इसके पश्चात महाराज दशरथ, गुरु वशिष्ठ और अयोध्यावासी, श्रीराम-लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न के साथ रथों, घोड़ों और बाजे-गाजे से सजी भव्य बारात लेकर जनकपुर की ओर प्रस्थान करते हैं। मंचन में बारात का दृश्य इतना सजीव प्रस्तुत किया गया कि दर्शकों को लगा जैसे वे स्वयं बारातियों के बीच खड़े हैं। जनकपुर पहुँचने पर पारंपरिक गीतों, मंगल वाद्ययंत्रों और पुष्प वर्षा से बारातियों का स्वागत किया गया। यह दृश्य देखकर आकाश भी मानो भावविभोर हो उठा, और देवता, यक्ष तथा ऋषिगण तक इस अलौकिक लीला के साक्षी बनने उतरे।

राम-लक्ष्मण और भरत-शत्रुघ्न का रूप-सौंदर्य देखकर जनकपुर की नारियाँ और सखियाँ मुग्ध हो उठीं। बाबा की पंक्तियाँ, "इंद्र को जो श्राप मिला था कि उन्हें सहस्त्र नेत्र मिलें, आज वह वरदान लगने लगा" सुनते ही समस्त परिसर जयकारों और भावुक हृदयों की धड़कनों से गूंज उठा।

मुख्य विवाह मंडप में वैदिक परंपरा के अनुरूप विवाह संस्कार की विधियाँ संपन्न हुईं। गुरु वशिष्ठ और महर्षि सतानंद ने वैदिक मंत्रोच्चारण के साथ विवाह संस्कार कराए। मंगल ध्वनियों और शंख-घंटियों के बीच जब माता सुनैना ने चारों भाइयों की आरती की और मुसर-लोढ़ा से परछन की रस्म निभाई, तो वहाँ उपस्थित हर व्यक्ति को भारतीय लोक परंपरा की गहराई का अनुभव हुआ।

सबसे भावुक क्षण तब आया जब जनक जी ने माता सीता का कन्यादान किया। उस समय वातावरण में शांति और गंभीरता का भाव छा गया। बाबा की पंक्ति, "मंगल मूल लगन दिन आवा, हिम ऋतु अग हुन मा सु सुहवा" सुनते ही दर्शकों के मन श्रद्धा और आनंद से भर उठे। पूरा मंडप भक्ति और दिव्यता से आलोकित हो गया।

विवाह का समापन एक भव्य आरती और दीप प्रज्वलन से हुआ। हजारों की संख्या में एकत्रित भक्तों ने दीप जलाकर "सीताराम विवाह" की जयकार की। मंत्रोच्चारण, शंखनाद और घंटे-घड़ियाल की गूंज ने रामनगर का आकाश भक्तिरस में पवित्र कर दिया। ऐसा प्रतीत हुआ मानो स्वर्ग स्वयं उतर आया हो और त्रेतायुग की पावन बेला वर्तमान में प्रत्यक्ष हो गई हो।

रामनगर रामलीला का यह विवाह प्रसंग केवल एक नाट्य मंचन भर नहीं, बल्कि एक जीवंत परंपरा है जो हर वर्ष समाज को संस्कृति, आस्था और भारतीय मूल्यों की गहराई से जोड़ती है। यही कारण है कि इस रामलीला को यूनेस्को ने विश्व धरोहर घोषित किया है। दर्शकों ने एक स्वर में कहा कि यह विवाह प्रसंग केवल देखने योग्य ही नहीं, बल्कि आत्मा को झकझोर देने वाला अनुभव है, जो हर वर्ष रामभक्ति की नयी ज्योति प्रज्वलित करता है।

रामनगर रामलीला का सातवाँ दिन इस बार भी यह सिद्ध कर गया कि यह परंपरा केवल इतिहास का स्मरण नहीं, बल्कि भक्ति और संस्कृति का जीवंत स्वरूप है, जो आने वाली पीढ़ियों को अपने मूल और आध्यात्मिकता से जोड़ने का कार्य करती रहेगी।

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