Sun, 27 Jul 2025 15:59:29 - By : SANDEEP KR SRIVASTAVA
वाराणसी: प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संसदीय क्षेत्र वाराणसी में स्मार्ट सिटी परियोजनाएं, ई-गवर्नेंस और विकास योजनाएं बड़े स्तर पर लागू हो रही हैं, लेकिन शहर की ट्रैफिक व्यवस्था आज भी बुनियादी मानकों से बहुत दूर है। विशेष रूप से ट्रैफिक सिग्नलों की स्थिति इतनी अव्यवस्थित है कि वाहन चालकों को यह तक नहीं पता होता कि उन्हें कितनी देर तक रुकना है।
कई प्रमुख चौराहों पर ट्रैफिक सिग्नल्स हैं, लेकिन उनमें "काउंटडाउन टाइमर" यानी हरे या लाल सिग्नल की अवधि दिखाने वाली घड़ियाँ नहीं लगी हैं। ऐसे में वाहन चालकों को यह नहीं पता चलता कि अगली बत्ती कब बदलेगी। इसका नतीजा यह होता है कि गाड़ियाँ बंद करने की बजाय चालू ही रखी जाती हैं, जिससे ईंधन की अत्यधिक खपत होती है। लोग बेसब्री में हॉर्न बजाते हैं, जिससे ध्वनि प्रदूषण भी बढ़ता है।
रामनगर निवासी निश्छल सिंह कहते हैं, “हमें हर बार अंदाजा लगाना पड़ता है कि अब सिग्नल कब बदलेगा। न समय तय है, न अनुशासन। अगर यातायात विभाग खुद मानकों पर नहीं चलता, तो वह आम जनता से किस आधार पर नियम पालन की अपेक्षा कर सकता है?”
✍️मानक क्या कहते हैं?
भारत सरकार के सड़क परिवहन एवं राजमार्ग मंत्रालय (MoRTH) और ब्यूरो ऑफ इंडियन स्टैंडर्ड्स (BIS) द्वारा तय किए गए मानकों के अनुसार, जहां भी ट्रैफिक सिग्नल लगाए जाएं, वहां सिग्नल लाइट्स के साथ-साथ समय दर्शाने वाला डिजिटल टाइमर अनिवार्य होता है। यह टाइमर वाहन चालकों को यह जानकारी देता है कि सिग्नल कितने सेकंड बाद बदलेगा, जिससे वे इंजन बंद कर सकते हैं और मानसिक रूप से तैयार रह सकते हैं। इससे ईंधन की बचत और दुर्घटनाओं में भी कमी आती है। कई मेट्रो शहरों में यह व्यवस्था वर्षों पहले लागू हो चुकी है, लेकिन प्रधानमंत्री के संसदीय क्षेत्र में अब तक यह मौलिक सुविधा भी लागू नहीं हो पाई है।
✍️केवल चालान के लिए कैमरे?
एक तरफ ट्रैफिक पुलिस ने कई चौराहों पर सीसीटीवी कैमरे और ऑटोमैटिक नंबर प्लेट रिकग्निशन (ANPR) सिस्टम लगाए हैं, जिनके ज़रिए हेलमेट न पहनने, रेड लाइट जंप, ट्रिपल राइडिंग और सीट बेल्ट न लगाने जैसे मामलों में ऑनलाइन चालान भेजे जा रहे हैं। लेकिन सवाल यह उठता है कि जब चालान की जवाबदेही तय करने के लिए टेक्नोलॉजी उपलब्ध है, तो ट्रैफिक समय निर्धारण के लिए वही तकनीक क्यों नहीं लगाई जा रही? क्या सरकारी तंत्र की जवाबदेही सिर्फ आम जनता से पैसे वसूलने तक सीमित है?
✍️क्या यह सिस्टम की लापरवाही नहीं?
अगर कोई वाहन चालक बिना संकेत के रेड लाइट क्रॉस करता है और उसे कैमरा पकड़ लेता है, तो उस पर ₹1,000 से लेकर ₹5,000 तक का चालान हो सकता है। लेकिन जब सिग्नल खुद यह नहीं बताता कि हरा कब होगा, लाल कब रहेगा, तो गलती किसकी मानी जाए?
क्या ऐसे मामलों में ट्रैफिक विभाग की जवाबदेही तय होनी चाहिए? क्या हर बार दोष सिर्फ ड्राइवर का होगा, जबकि सिस्टम ही दिशाहीन हो?
✍️पर्यावरणीय और मानसिक असर
बिना तय समय के सिग्नलों पर वाहन चालकों को इंजन चालू रखना पड़ता है। इससे एक अनुमान के अनुसार प्रति दिन हज़ारों लीटर ईंधन की बर्बादी हो रही है। इसके साथ ही हॉर्न का अत्यधिक उपयोग न केवल ध्वनि प्रदूषण को बढ़ा रहा है, बल्कि बुज़ुर्गों, बच्चों और बीमार लोगों की सेहत पर भी प्रतिकूल प्रभाव डाल रहा है।
मानसिक तनाव और झगड़ों की घटनाएं भी ऐसी ही व्यवस्थाओं से उपजती हैं, जब चालक को न सिग्नल पर भरोसा होता है, न सामने खड़ी पुलिस की दिशा-निर्देशन पर।
✍️पूछता है, बनारस कब जागेगा सिस्टम?
✅“कैमरे चालू हो सकते हैं, लेकिन टाइमर नहीं?”
✅“चालान भेजना सिस्टम का अधिकार है, लेकिन सिग्नल टाइम बताना क्या उसकी जिम्मेदारी नहीं?”
✅“क्या सिर्फ जनता को नियमों का पालन करना है, या ट्रैफिक विभाग भी अपने मानकों पर खरा उतरेगा?”
प्रधानमंत्री के संसदीय क्षेत्र में ऐसी अव्यवस्था केवल ट्रैफिक समस्या नहीं है, यह प्रशासनिक इच्छाशक्ति की परीक्षा है।
यदि स्मार्ट सिटी का सपना केवल इवेंट और फोटो खिंचवाने तक सीमित रहेगा, तो आम जनता के लिए यह सपना नहीं, एक बोझ बन जाएगा।
अब ज़रूरत है कि वाराणसी ट्रैफिक विभाग अपनी जवाबदेही समझे, सिग्नलों को तय समय से संचालित करे, हर चौराहे पर डिजिटल टाइमर लगाए और नागरिकों के विश्वास को फिर से स्थापित करे।
क्योंकि सिग्नल केवल ट्रैफिक कंट्रोल के उपकरण नहीं होते। वे शहरी अनुशासन, प्रशासनिक जिम्मेदारी और नागरिक सम्मान का प्रतिबिंब होते हैं।