दीपावली की अमावस्या की रात तंत्र साधना और गूढ़ परंपराओं के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण मानी जाती है। लोक मान्यताओं के अनुसार यह वह रात होती है जब तांत्रिक साधक अपनी शक्तियों को जागृत करने और मां लक्ष्मी को प्रसन्न करने के लिए विशेष अनुष्ठान करते हैं। इसी कारण यह रात उल्लू और कछुए जैसे जीवों के लिए खतरनाक बन जाती है, क्योंकि इन्हें लक्ष्मी का प्रतीक माना जाता है। माना जाता है कि इन जीवों की बलि देने या इन्हें तांत्रिक अनुष्ठानों में शामिल करने से साधक को धन, वैभव और सिद्धियों की प्राप्ति होती है। हालांकि यह परंपरा पूरी तरह आस्था और अंधविश्वास पर आधारित है, जिसका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है। उत्तर प्रदेश के वाराणसी, चित्रकूट, प्रयागराज जैसे स्थानों को लंबे समय से तांत्रिक साधना के केंद्र के रूप में जाना जाता है, जहां दीपावली की रात श्मशान घाटों और मंदिरों में गुप्त तांत्रिक अनुष्ठान किए जाते हैं।
काशी विश्वनाथ धाम और इसके आसपास के क्षेत्रों में अब भी कुछ तांत्रिक साधक इस परंपरा को जीवित रखने की कोशिश करते हैं। वहीं बीएचयू के ज्योतिषशास्त्र विभाग के विभागाध्यक्ष डॉ. विनय कुमार पांडेय के अनुसार, किसी भी जीव की बलि देना न केवल अमानवीय है, बल्कि इसका तंत्र या सिद्धि से कोई संबंध नहीं है। वास्तविक शुभता सही कर्म, दान, भक्ति और सदाचार में निहित होती है। धर्मशास्त्रों और तंत्र ग्रंथों की कई व्याख्याओं में भी स्पष्ट किया गया है कि बलि का अर्थ प्रतीकात्मक त्याग होता है, न कि किसी प्राणी की हत्या।
आधुनिक दृष्टिकोण से देखा जाए तो यह प्रथा आज के समाज में पशु क्रूरता के अंतर्गत आती है। भारत में Prevention of Cruelty to Animals Act, 1960 के तहत किसी भी जीव को अनावश्यक पीड़ा पहुंचाना दंडनीय अपराध है। कई राज्यों में तंत्र-साधना के नाम पर बलि पर कानूनी रोक भी लगाई गई है। समाजशास्त्रियों का मानना है कि तंत्र की वास्तविक भावना आत्म-अनुशासन, ध्यान और ऊर्जा नियंत्रण में निहित है, न कि हिंसा में। दीपावली जैसे आध्यात्मिक पर्व को तांत्रिक क्रियाओं और बलि जैसी अंधविश्वासी परंपराओं से जोड़ना न केवल धार्मिक असंतुलन पैदा करता है, बल्कि संस्कृति की उस पवित्र भावना को भी आहत करता है जो दीपावली का मूल सार है — अंधकार पर प्रकाश की विजय।
दीपावली की अमावस्या पर तांत्रिक परंपराएं: उल्लू और कछुए क्यों बनते हैं बलि के प्रतीक

दीपावली अमावस्या की रात तांत्रिक साधना में उल्लू और कछुए की बलि को अमानवीय बताया गया, विद्वानों ने इसे अंधविश्वास करार दिया।
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