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वाराणसी: हरिश्चंद्र घाट पर मां ने दी बेटे को मुखाग्नि, देख सब हुए भावुक

वाराणसी: हरिश्चंद्र घाट पर मां ने दी बेटे को मुखाग्नि, देख सब हुए भावुक

वाराणसी के हरिश्चंद्र घाट पर मां कुसुम चौरसिया ने अपने मृत बेटे राहुल को स्वयं मुखाग्नि दी, जिसने सबको भावुक कर दिया.

वाराणसी: जीवन और मृत्यु के शाश्वत सत्य का साक्षी काशी एक बार फिर उस क्षण का गवाह बना, जिसने घाटों की आत्मा तक को द्रवित कर दिया। बीते बुधवार को हरिश्चंद्र घाट पर वो दृश्य सामने आया जिसे देखकर वहां मौजूद हर व्यक्ति की आंखें नम हो गईं। वह क्षण किसी दार्शनिक ग्रंथ से निकले प्रसंग जैसा था। जहां एक मां ने अपने ही बेटे को मुखाग्नि देकर उन परंपराओं को मात दे दी, जिनमें यह दायित्व प्रायः पिता, पुत्र या भाई को ही मिलता है। लेकिन हालातों के सामने परंपराएं भी मौन हो जाती हैं, और कुसुम चौरसिया ने वही किया जिसकी किसी ने कल्पना भी नहीं की होगी।

बनारस के औरंगाबाद क्षेत्र में वर्षों से किराए के छोटे से कमरे में जीवन बिताती रही कुसुम चौरसिया का संसार हमेशा से संघर्षों से घिरा रहा। करीब 15 वर्ष पूर्व पति साथ छोड़ गए, मगर कुसुम ने न मांग का सिंदूर छोड़ा और न ही जीवन की उम्मीदें। वह दूसरों के घरों में झाड़ू-बर्तन कर किसी तरह गुजर-बसर करती रहीं और बेटे राहुल तथा बेटी की परवरिश की जिम्मेदारी अकेले निभाती रहीं। लेकिन नियति ने उनके संघर्ष को और कठोर बना दिया। राहुल कुछ समय से गंभीर बीमारी से जूझ रहा था और बुधवार को उसने अंतिम सांसें ले लीं।

घर में उस वक्त कुसुम के साथ कोई नहीं था। बेटी, जो अक्सर किसी न किसी काम से घर आती-जाती रहती थी, इस मुश्किल घड़ी में भी नहीं पहुंची। जब उसे सूचना दी गई तो उसने यह कहते हुए इंकार कर दिया कि उसके यहां भी गमी लगी है। इस जवाब ने मां के मन को भीतर तक तोड़ दिया। वह बेटे के शव को कमरे में रखकर अकेली, असहाय और निराश बैठी रह गईं। मोहल्ले के युवक रोहित चौरसिया ने यह दृश्य देखकर तुरंत समाजसेवी अमन कबीर को सूचना दी।

अमन कबीर सेवा न्यास की टीम बुजुर्ग मां की मदद के लिए तुरंत पहुंची और पूरी संवेदनशीलता के साथ राहुल के अंतिम संस्कार की व्यवस्था शुरू की। कुसुम अपने बेटे को आखिरी बार घर से विदा करते हुए फफक पड़ीं, लेकिन उनके आंसुओं के साथ एक अडिग मातृत्व का साहस भी दिखाई दे रहा था। हरिश्चंद्र घाट पहुंचने पर औपचारिक रीति-विधियों की तैयारी हुई, लेकिन जब अग्नि देने की बारी आई, तो घाट पर मौजूद सभी की सांसें थम गईं। घर में पुरुष सदस्य न होने के कारण कुसुम ने खुद आगे बढ़कर अपने बेटे की चिता को अग्नि देने का निर्णय लिया।

यह क्षण इतना भावुक था कि हवा तक जैसे ठहर गई हो। कुसुम ने बेटे के चेहरे को आखिरी बार सहलाया, उसे प्यार से विदा कहा और भगवान से उसकी आत्मा की शांति की प्रार्थना की। उन्होंने घी का लेप चढ़ाया, डगमगाते हाथों से लकड़ियों को ठीक किया और फिर कांपते कदमों के साथ अग्नि का स्पर्श चिता को दिया। मां के इस साहस ने वहां मौजूद सभी लोगों की आंखें नम कर दीं। कोई भी इस अनकहे दर्द को शब्दों में बांध नहीं पा रहा था।

अमन कबीर ने बताया कि कुसुम बार-बार यही कह रही थीं कि उन्होंने बेटे के लिए बहुत सपने देखे थे, विशेषकर उसका विवाह, लेकिन उनके सारे सपने राख बनकर बिखर गए। घाट पर उपस्थित लोगों ने स्वीकार किया कि काशी में प्रतिदिन अनगिनत संस्कार होते हैं, लेकिन ऐसा उदाहरण वर्षों में भी देखने को नहीं मिलता, जहां असहायता और पीड़ा के बीच मातृत्व इतनी दृढ़ता से खड़ा दिखाई दे।

यह घटना सिर्फ एक अंतिम संस्कार नहीं थी, बल्कि उस मां के साहस, समाज की सच्चाइयों और जीवन की कठोर परिस्थितियों का मार्मिक प्रतिबिंब थी। हरिश्चंद्र घाट उस दिन न केवल अग्नि की लपटों से उजाला हुआ, बल्कि उस मां के धैर्य की लौ से भी, जिसने दुख में डूबकर भी अपने कर्तव्य का निर्वहन किया। काशी ने उस दिन एक ऐसी कहानी देखी, जिसे सुनकर हर दिल पिघल जाएगा और हर आंख भर आएगी।

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