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वाराणसी: रामनगर रामलीला में धनुष यज्ञ ने त्रेतायुग को फिर से किया साकार, सीता के हुए राम

वाराणसी: रामनगर रामलीला में धनुष यज्ञ ने त्रेतायुग को फिर से किया साकार, सीता के हुए राम

रामनगर की ऐतिहासिक रामलीला के छठे दिन धनुष यज्ञ प्रसंग ने हजारों दर्शकों को प्राचीन त्रेतायुग की पावन स्मृतियों में पहुँचा दिया।

वाराणसी: रामनगर की ऐतिहासिक और विश्वविख्यात रामलीला ने गुरुवार की रात एक बार फिर इतिहास को साकार कर दिया। छठे दिन का मुख्य आकर्षण रहा धनुष यज्ञ का प्रसंग, जिसने हजारों दर्शकों को त्रेतायुग की पावन स्मृतियों में पहुँचा दिया। यह प्रसंग न केवल भक्तों को रोमांचित कर गया, बल्कि राम-सीता विवाह की तैयारी का मार्ग भी प्रशस्त कर गया।

शाम होते ही गंगा किनारे बसी रामनगर की रंगभूमि दीपों और मशालों से जगमगा उठी। राजा जनक का दरबार जीवंत रूप में उपस्थित था, जहाँ देश-विदेश से आए नरेशों ने अपनी उपस्थिति दर्ज कराई। सभा का वातावरण गम्भीर था। तभी राजा जनक ने सभा में घोषणा की, "जेहि पावक सुरतरु समाना। करउ सो अविलंब सुत दाना॥"

जनक ने प्रण किया कि जो वीर शिवजी के धनुष को उठाकर प्रत्यंचा चढ़ा देगा, वही उनकी पुत्री सीता का वरण करेगा।
सभा में बैठे अनेक राजा एक-एक कर आगे आए, किसी ने अपनी शक्ति दिखाई, किसी ने गर्व का परिचय दिया, परंतु शिवधनुष अडिग रहा। तुलसीदास जी की चौपाई इस दृश्य को और स्पष्ट करती है।
"नर नरेस सब भूपति आनी। चले उठावन धनुष सयानी॥
कोउ न सोधि सकल नर नाहिं। देखि सभा सब भै उर आहि॥"

किसी ने भी धनुष को हिला तक न सका। माहौल में निराशा छा गई और राजा जनक की व्यथा मुखर हो उठी। राजा जनक ने व्याकुल स्वर में कहा कि यदि यह ज्ञात होता कि पृथ्वी वीरों से विहीन हो चुकी है, तो वे ऐसा प्रण न करते। यह सुनकर लक्ष्मण का क्रोध फूट पड़ा।

"लक्ष्मण कहेउ सकोप तब, सुनहु जनक बलवान।
घट सम धरती उठि सके, धनुष कठिन काहि मान॥"

लक्ष्मण की गर्जना से सभा गूंज उठी। तभी मुनि विश्वामित्र ने राम को संकेत दिया। गुरु की आज्ञा का पालन करते हुए राम सहज भाव से आगे बढ़े।

राम का आगमन ऐसा था मानो स्वयं विष्णु अवतार सभा में प्रकट हो रहे हों। उन्होंने विनम्रता से धनुष उठाया और धीरे-धीरे प्रत्यंचा चढ़ाने लगे। इसी क्षण तोप दागी गई और मैदान गूँज उठा। पल भर में धनुष टूट गया।
"भए प्रगट कृपाला, दीनदयाला।
कौसल्या हितकारी॥
हरषि सिया रघुवीर उभारी।
भइ सभा आनंदकारी॥"

सभा में उपस्थित हजारों दर्शक जयकारों से गूंज उठे,"जय श्रीराम" उसी क्षण सीता ने राम के गले में जयमाला डाल दी। पूरा वातावरण भक्ति और उल्लास से भर उठा।

लेकिन प्रसंग यहीं समाप्त नहीं हुआ। शिवधनुष टूटने की खबर सुनकर क्रोधाग्नि में जलते-भुनते परशुराम वहाँ पहुँचे। उनकी गर्जना से सभा हिल गई।
"सुनहु राम सुजन सिख मोरे। तोरे धनुष मोरि परताप कोरे॥"

लक्ष्मण और परशुराम के बीच तीखी तकरार हुई। लक्ष्मण के उग्र वचन और परशुराम का रोष, दोनों ने सभा में तनाव पैदा कर दिया। तभी राम ने आगे बढ़कर नम्रता से प्रणाम किया और परशुराम के अपने धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाकर अपनी दिव्यता प्रकट की। परशुराम क्षणभर में समझ गए कि यह कोई साधारण राजकुमार नहीं, बल्कि स्वयं नारायण अवतार हैं।
"प्रभु पहिचानि भयो परशुरामा। गिरा गही भयहु सबे सम्मानमा॥"

राम के सामने उनका क्रोध शांत हो गया और वे प्रणाम कर लौट गए। शिवधनुष के टूटने और परशुराम के शांत हो जाने के साथ ही जनकपुरी में उल्लास फैल गया। जनक ने सीता और राम के विवाह की तैयारियों का आदेश दिया। मंच पर भावनाओं की धारा बह रही थी।

सभा का समापन आरती और भक्तिमय भजनों के साथ हुआ। दर्शकों के लिए यह केवल एक नाट्य प्रसंग नहीं, बल्कि जीवंत आस्था और परंपरा का अनुभव था।

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