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वाराणसी: गंगा में बढ़ती गाद से खो रहा काशी का अर्धचंद्राकार स्वरूप, वैज्ञानिक हल जरूरी

वाराणसी: गंगा में बढ़ती गाद से खो रहा काशी का अर्धचंद्राकार स्वरूप, वैज्ञानिक हल जरूरी

वाराणसी में गंगा में बढ़ती गाद से नदी का अर्धचंद्राकार स्वरूप व गहराई घट रही है, विशेषज्ञ वैज्ञानिक तरीके से गाद हटाने की सलाह दे रहे हैं।

वाराणसी: गंगा की गोद में बसे काशी की पहचान उसके प्राचीन अर्धचंद्राकार स्वरूप से रही है, जो अब धीरे-धीरे लुप्त होता जा रहा है। गंगा के तल में बढ़ती गाद ने न केवल नदी की गहराई घटा दी है, बल्कि इसके सौंदर्य और धार्मिक स्वरूप को भी प्रभावित किया है। विशेषज्ञों का मानना है कि यदि वैज्ञानिक तरीके से गंगा में जमा गाद को हटाया जाए, तो बनारस का ऐतिहासिक रूप और घाटों की भव्यता दोबारा स्थापित की जा सकती है। इसके साथ ही शहर के पर्यटन और स्थानीय अर्थव्यवस्था को भी नया जीवन मिलेगा।

गंगा के घाटों पर हर साल बाढ़ के बाद सिल्ट की परतें जम जाती हैं। नगर निगम और जिला प्रशासन इन परतों को हटाने के बजाय अक्सर गाद को सीधे नदी में बहा देता है। इससे घाटों के किनारे की ऊंचाई बढ़ती जा रही है और गंगा का बहाव मार्ग लगातार संकरा होता जा रहा है। गाद को वैज्ञानिक ढंग से एकत्र कर पुनः उपयोग में लाया जा सकता है, लेकिन फिलहाल इस दिशा में गंभीर प्रयास नहीं हो रहे हैं।

आईआईटी बीएचयू के पूर्व प्रोफेसर और नदी विज्ञान विशेषज्ञ डॉ. यू.के. चौधरी ने बताया कि बीएचयू स्थित गंगा प्रयोगशाला के रिकार्ड के अनुसार, पहले काशी में गंगा की लंबाई लगभग 10 किलोमीटर और चौड़ाई 360 से 750 मीटर तक थी। गर्मी के मौसम में गहराई 6.3 से 18.6 मीटर तक रहती थी। गंगा पार से आने वाले अपशिष्टों और घाटों की सफाई के नाम पर हर साल गाद के बहाए जाने से गंगा की औसत ऊंचाई बढ़ रही है, जिससे जल प्रवाह बाधित हो रहा है।

डॉ. चौधरी ने यह भी बताया कि गर्मियों में गंगा का जो सबसे गहरा हिस्सा हुआ करता था, वह अब भराव के कारण धीरे-धीरे उथला होता जा रहा है। इस स्थिति में गंगा अपने पुराने अर्धचंद्राकार आकार से दूर जा रही है, जिससे काशी की भौगोलिक और धार्मिक संरचना पर असर पड़ रहा है।

बीएचयू के पर्यावरण और सतत विकास संस्थान के पूर्व निदेशक प्रो. बी.डी. त्रिपाठी ने कहा कि प्रशासन ने एनजीटी के निर्देशों की गलत व्याख्या कर गाद हटाने की प्रक्रिया को रोक दिया है। एनजीटी ने केवल बालू खनन पर रोक लगाई थी, वह भी कछुआ अभयारण्य क्षेत्र की सुरक्षा के लिए। अब जबकि अभयारण्य को अन्यत्र स्थानांतरित किया जा चुका है, गाद हटाने पर कोई रोक नहीं है। उन्होंने कहा कि प्रशासन द्वारा गाद को फिर से गंगा में बहाना गंगा की सेहत और स्वरूप दोनों के लिए हानिकारक है।

प्रो. त्रिपाठी ने याद दिलाया कि 2014 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने असि घाट पर खुद फावड़ा चलाकर स्वच्छता अभियान की शुरुआत की थी और बाढ़ की गाद को हटाने के महत्व पर जोर दिया था। उनका कहना है कि गाद को सही तरीके से हटाना असंभव नहीं, बल्कि प्रशासनिक इच्छाशक्ति की कमी इसका असली कारण है।बीएचयू के पर्यावरण विज्ञानी प्रो. कृपा राम ने बताया कि बाढ़ के बाद जमा होने वाली सिल्ट बेहद सूक्ष्म और शुद्ध होती है, जिसे कृषि और निर्माण कार्यों में पुनः उपयोग किया जा सकता है। घाटों के किनारे जब सिल्ट की मोटी परत जमती है, तो उसकी ऊंचाई बढ़ती जाती है, जिससे दीर्घकाल में जल प्रवाह बाधित होता है और गंगा के पारिस्थितिकी तंत्र पर गंभीर असर पड़ता है।

विशेषज्ञों ने सुझाव दिया है कि नगर निगम और जिला प्रशासन को गाद को नदी में बहाने के बजाय उसके वैज्ञानिक निस्तारण की प्रक्रिया अपनानी चाहिए। इससे न केवल गंगा का पुराना स्वरूप लौटेगा, बल्कि पर्यावरण संरक्षण और शहर की सुंदरता दोनों को लाभ मिलेगा।

काशीवासियों की भी यही उम्मीद है कि सरकार और स्थानीय प्रशासन गंगा की गहराई और प्रवाह को बहाल करने के लिए ठोस कदम उठाएंगे, ताकि मां गंगा एक बार फिर अपने अर्धचंद्राकार रूप में काशी को आलिंगन कर सके।

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