Tue, 22 Jul 2025 10:39:44 - By : SANDEEP KR SRIVASTAVA
लखनऊ: उत्तर प्रदेश में राजस्व मामलों की कार्यप्रणाली को समयबद्ध और पारदर्शी बनाने के लिए शासन ने बड़ा कदम उठाया है। अब भूमि के दाखिल-खारिज यानी नामांतरण मामलों में अनावश्यक देरी के लिए जिलाधिकारी (डीएम) और मंडलायुक्त (कमिश्नर) को भी उत्तरदायी ठहराया जाएगा। सरकार ने स्पष्ट निर्देश जारी करते हुए कहा है कि गैर-विवादित मामलों का निस्तारण 45 दिनों और विवादित मामलों का निपटारा 90 दिनों के भीतर करना अनिवार्य होगा। यह निर्णय उत्तर प्रदेश राजस्व संहिता-2006 की धारा 34 और 35 के तहत तय समयसीमा के पालन को सुनिश्चित करने की दिशा में लिया गया है।
इस संबंध में प्रमुख सचिव, राजस्व विभाग, पी. गुरुप्रसाद ने एक सख्त शासनादेश जारी किया है। इसमें मंडलायुक्तों और जिलाधिकारियों को स्पष्ट रूप से निर्देशित किया गया है कि नामांतरण से जुड़े सभी मामलों का समयबद्ध निस्तारण सुनिश्चित किया जाए और इसमें लापरवाही करने वाले अधिकारियों व कर्मचारियों के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई की जाएगी। शासन ने यह कदम तब उठाया जब उसे पता चला कि कई जिलों में नामांतरण वादों के निस्तारण में गंभीर ढिलाई बरती जा रही है, जिससे आम जनता को वर्षों तक कार्यालयों के चक्कर काटने पड़ते हैं।
दरअसल, जब किसी भूमि का स्वामित्व बिक्री, दान या उत्तराधिकार के जरिए किसी अन्य व्यक्ति को स्थानांतरित होता है, तो उसे राजस्व रिकॉर्ड में दर्ज किया जाना आवश्यक होता है। इसी प्रक्रिया को आम भाषा में दाखिल-खारिज या नामांतरण कहा जाता है। यह एक महत्वपूर्ण प्रशासनिक कार्य है जो न केवल भू-स्वामित्व की कानूनी स्थिति को दर्शाता है, बल्कि भविष्य में भूमि संबंधी विवादों से भी बचाव करता है। बावजूद इसके, वर्षों से इस प्रक्रिया में अनावश्यक देरी होती रही है, जिससे प्रभावित नागरिकों को अदालतों का दरवाजा खटखटाना पड़ा है।
उत्तर प्रदेश उच्च न्यायालय ने हाल ही में दाखिल-खारिज मामलों में हो रही देरी पर सख्त नाराजगी जताई है और सरकार से जवाब तलब किया था। इसके बाद शासन ने आरसीसीएमएस (राजस्व कोर्ट केस मैनेजमेंट सिस्टम) पोर्टल पर सभी लंबित और नए मामलों का अनिवार्य पंजीकरण कराने का आदेश दिया है, ताकि पारदर्शिता बनी रहे और किसी भी मामले की निगरानी ऑनलाइन की जा सके। अब प्रत्येक तहसील और जिला स्तर पर मामलों की समीक्षा कर संबंधित पीठासीन अधिकारियों को व्यक्तिगत रूप से जिम्मेदार बनाया जाएगा।
इसके अलावा, शासनादेश में यह भी निर्देश दिया गया है कि जानबूझकर नामांतरण प्रार्थना पत्रों को लंबित रखने वाले कर्मचारियों की पहचान कर उनके विरुद्ध सख्त कार्रवाई की जाएगी। गैर-विवादित मामलों को 45 दिनों की समयसीमा में ही निस्तारित करना अनिवार्य होगा और इस सीमा से अधिक समय लेना अब अनुशासनहीनता माना जाएगा। जिन मामलों में उच्च न्यायालय के आदेश शामिल हैं, उनकी तिथियां तत्काल नियत कर प्रतिदिन सुनवाई सुनिश्चित की जाएगी।
राज्य सरकार ने यह भी स्पष्ट किया है कि मंडलायुक्त और जिलाधिकारी अपने-अपने स्तर पर एक स्पष्ट कार्ययोजना बनाकर तहसीलों में लंबित वादों की समीक्षा करेंगे और निस्तारण की प्रक्रिया को गति देंगे। यदि किसी पीठासीन अधिकारी द्वारा इन निर्देशों की अवहेलना की जाती है, तो उनके खिलाफ शासन को कार्रवाई के लिए प्रस्ताव भेजा जाएगा, जिसकी जानकारी राजस्व परिषद को भी दी जाएगी।
यह कदम भूमि स्वामित्व व्यवस्था को सरल, पारदर्शी और जवाबदेह बनाने की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण प्रयास माना जा रहा है। इससे न केवल जनता को राहत मिलेगी, बल्कि प्रशासनिक पारदर्शिता और दक्षता भी बढ़ेगी। अब देखना यह है कि जमीनी स्तर पर इन निर्देशों का कितना प्रभाव पड़ता है और क्या इससे लंबित मामलों का बोझ वास्तव में घटता है।