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तवांग कांफ्रेंस पर चीन की आपत्तिजनक प्रतिक्रिया, तिब्बत-अरुणाचल पर असहजता दिखी

तवांग कांफ्रेंस पर चीन की आपत्तिजनक प्रतिक्रिया, तिब्बत-अरुणाचल पर असहजता दिखी

तवांग में दलाई लामा कांफ्रेंस पर चीन ने कड़ी आपत्ति जताई, अरुणाचल को दक्षिणी तिब्बत बताकर सांस्कृतिक अतिक्रमण करार दिया।

विजय क्रांति।अरुणाचल प्रदेश के तवांग में छठे दलाई लामा पर आयोजित अंतरराष्ट्रीय कांफ्रेंस के बाद चीन की तीखी प्रतिक्रिया ने एक बार फिर यह स्पष्ट कर दिया है कि तिब्बत और अरुणाचल से जुड़े किसी भी विमर्श से बीजिंग किस कदर असहज हो जाता है। यह कांफ्रेंस तीन से छह दिसंबर तक चली और इसके कुछ ही दिनों बाद चीन सरकार ने अपनी आधिकारिक वेबसाइट और सरकारी टिप्पणीकारों के माध्यम से भारत सरकार अरुणाचल के मुख्यमंत्री और आयोजन से जुड़ी संस्थाओं पर तीखे और आपत्तिजनक आरोप लगाए। चीन ने अरुणाचल के लिए चीनी नाम का प्रयोग करते हुए इसे तथाकथित दक्षिणी तिब्बत बताया और कांफ्रेंस को सांस्कृतिक अतिक्रमण करार दिया। इस प्रतिक्रिया ने चीन की बेचैनी और आक्रामक मानसिकता को उजागर कर दिया।

विशेषज्ञों का कहना है कि चीन की यह नाराजगी केवल एक अकादमिक सम्मेलन तक सीमित नहीं है बल्कि इसके पीछे तिब्बत पर उसके गैरकानूनी कब्जे की असहज सच्चाई छिपी हुई है। वर्ष 1951 से तिब्बत पर चीन का नियंत्रण और उसके बाद दलाई लामा के निर्वासन की घटनाएं आज भी अंतरराष्ट्रीय मंचों पर सवालों के घेरे में हैं। भारत के अरुणाचल प्रदेश को तिब्बत का हिस्सा बताने का चीनी दावा इसी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि से जुड़ा है। दुर्भाग्य से भारत ने अब तक इस मुद्दे पर खुलकर उस मूल कारण को चुनौती नहीं दी है जो चीन की आक्रामक नीति की जड़ में है।

तवांग कांफ्रेंस का आयोजन छठे दलाई लामा ग्यालवा त्सांगयांग ग्यात्सो के ऐतिहासिक महत्व को वैश्विक स्तर पर सामने लाने के उद्देश्य से किया गया था। छठे दलाई लामा का जन्म सत्रहवीं शताब्दी में तवांग क्षेत्र में हुआ था जो आज भारत का हिस्सा है। इसी क्षेत्र से होकर चौदहवें दलाई लामा ने भी तिब्बत से पलायन कर भारत में शरण ली थी। इन ऐतिहासिक तथ्यों के कारण तवांग का धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व असाधारण है। सम्मेलन में भारत के साथ अमेरिका जापान मंगोलिया इजरायल और कनाडा जैसे देशों के विद्वानों और तिब्बत विशेषज्ञों की भागीदारी ने इसे अंतरराष्ट्रीय स्वरूप दिया।

इस आयोजन से चीन की चिंता का एक बड़ा कारण इंटरनेशनल बुद्धिस्ट कन्फेडरेशन की बढ़ती वैश्विक भूमिका भी है। भारत के इस मंच ने उन प्रयासों को चुनौती दी है जिनके जरिये चीन स्वयं को विश्व बौद्ध समुदाय का एकमात्र प्रतिनिधि स्थापित करना चाहता रहा है। चीनी नेतृत्व लंबे समय से तिब्बत में अपनी पकड़ के आधार पर वैश्विक बौद्ध विमर्श को नियंत्रित करने की कोशिश करता आया है। इसके उलट भारत ने बौद्ध परंपरा के विविध केंद्रों और वरिष्ठ धर्मगुरुओं को एक मंच पर लाकर एक समावेशी और स्वतंत्र दृष्टिकोण को आगे बढ़ाया है जिसे अंतरराष्ट्रीय समर्थन भी मिल रहा है।

चीन की हालिया प्रतिक्रियाएं केवल बयानों तक सीमित नहीं रहीं। अरुणाचल के नागरिकों के साथ चीनी हवाई अड्डों पर दुर्व्यवहार भारतीय खिलाड़ियों को वीजा देने से इनकार और भारत के संवैधानिक पदाधिकारियों की अरुणाचल यात्राओं पर आपत्ति जैसे कदम उसकी उसी नीति का हिस्सा रहे हैं। विशेषज्ञ मानते हैं कि यदि भारत को इस दबाव का प्रभावी उत्तर देना है तो उसे तिब्बत पर चीन के गैरकानूनी कब्जे के मुद्दे को अंतरराष्ट्रीय विमर्श में स्पष्ट रूप से उठाना होगा। इससे न केवल ऐतिहासिक सच्चाई सामने आएगी बल्कि चीन को यह संदेश भी जाएगा कि भारत अपनी संप्रभुता और सांस्कृतिक विरासत के प्रश्न पर किसी दबाव में आने वाला नहीं है।

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