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शंकराचार्य अविमुक्तेश्वरानंद ने नाम बदलने की राजनीति और चुनावी प्रक्रिया पर उठाए सवाल

शंकराचार्य अविमुक्तेश्वरानंद ने नाम बदलने की राजनीति और चुनावी प्रक्रिया पर उठाए सवाल

शंकराचार्य अविमुक्तेश्वरानंद ने नाम परिवर्तन की राजनीति, इतिहास बोध और चुनावी प्रक्रिया पर तीखी प्रतिक्रिया दी।

ज्योतिषपीठ के शंकराचार्य स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद सरस्वती ने देश की राजनीति इतिहास बोध चुनावी प्रक्रिया और धार्मिक संस्थानों के सरकारीकरण को लेकर स्पष्ट और तीखे शब्दों में अपनी बात रखी है। उन्होंने कहा कि जिन व्यक्तियों का उल्लेख इतिहास में दर्ज है वे इतिहास का विषय हैं लेकिन वर्तमान और भविष्य की दिशा तय करने में उन्हें प्रतीक बनाना उचित नहीं है। शंकराचार्य ने कहा कि देश को आगे ले जाने के लिए वर्तमान की समस्याओं और भविष्य की आवश्यकताओं पर ध्यान केंद्रित होना चाहिए न कि इतिहास के पात्रों को राजनीतिक विमर्श का केंद्र बनाना चाहिए।

नाम परिवर्तन की राजनीति पर टिप्पणी करते हुए शंकराचार्य ने कहा कि बदलाव की होड़ में लगे लोगों को यह समझना चाहिए कि यह प्रक्रिया अंततः स्वयं उन पर भी लागू हो सकती है। उन्होंने कहा कि योजनाओं प्रतीकों और संस्थानों के नाम बदलने की प्रवृत्ति एक चेतावनी है और जो लोग आज बदल रहे हैं वे कल स्वयं बदल दिए जाएंगे। उन्होंने यह भी कहा कि लोकतंत्र में स्थायित्व और गंभीरता आवश्यक है ताकि नीति और विचार की निरंतरता बनी रहे।

चुनावी प्रक्रिया और एसआईआर को लेकर शंकराचार्य ने स्पष्ट किया कि यह पूरी तरह संवैधानिक और वैधानिक प्रक्रिया है। उन्होंने कहा कि चुनाव आयोग को यह अधिकार है कि वह मतदाता सूची को शुद्ध और अद्यतन रखे और यदि आयोग अपनी निर्धारित प्रक्रिया के अनुसार कार्य कर रहा है तो उस पर आपत्ति का कोई औचित्य नहीं है। उनका कहना था कि लोकतंत्र को मजबूत बनाए रखने के लिए संवैधानिक संस्थाओं को अपने दायित्व निभाने की स्वतंत्रता मिलनी चाहिए और उनके कार्यों को संदेह की दृष्टि से नहीं देखा जाना चाहिए।

वृंदावन के मंदिरों में पूजा व्यवस्था को लेकर शंकराचार्य ने गहरी चिंता जताई। उन्होंने कहा कि रसोइयों को वेतन न मिलने और ठाकुर जी को भोग न लग पाने की घटना अत्यंत गंभीर है और यह सरकारीकरण का दुष्परिणाम है। उन्होंने कहा कि यह पहली बार है जब आर्थिक अव्यवस्थाओं के कारण भगवान को भोग तक नहीं लगाया जा सका। शंकराचार्य ने कहा कि सरकारी नियंत्रण के चलते न तो भगवान को विश्राम करने दिया जा रहा है और न ही विधिवत पूजा और राग भोग की परंपराएं निभाई जा रही हैं।

धार्मिक परंपराओं का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा कि भगवान श्रीकृष्ण के गोवर्धन धारण की कथा यह बताती है कि भगवान के भोग में कभी चूक नहीं होनी चाहिए। यदि किसी कारण से भोग में चूक हुई है तो उसका परिमार्जन आवश्यक है और दोबारा छप्पन भोग लगाकर प्रायश्चित किया जाना चाहिए। उन्होंने स्पष्ट कहा कि इस पूरे मामले में दोषी वह सरकारी व्यवस्था है जिसने मंदिरों की पारंपरिक व्यवस्था को बाधित कर दिया है। उन्होंने आग्रह किया कि धार्मिक स्थलों की स्वायत्तता का सम्मान किया जाए ताकि आस्था और परंपरा सुरक्षित रह सके।

इसी क्रम में शंकराचार्य अविमुक्तेश्वरानंद सरस्वती की देखरेख में यजुर्वेद के घनपाठ का प्रथम मुद्रित प्रकाशन भी संपन्न हुआ। घनपाठ विमोचन समारोह में देश भर के वैदिक विद्वान घनपाठी और धर्माचार्य उपस्थित रहे। शंकराचार्य ने अपने उद्बोधन में वेदों की अष्टविकृतियों को वैदिक परंपरा का अजेय रक्षक बताया और कहा कि ये पाठ विधियां केवल कंठस्थ करने की तकनीक नहीं हैं बल्कि एक वैज्ञानिक सत्यापन प्रणाली हैं जिनसे सहस्राब्दियों तक वैदिक मंत्रों की शुद्धता अक्षुण्ण रही है। उन्होंने कहा कि वेदों की यह मौखिक परंपरा भारतीय ज्ञान परंपरा की सबसे बड़ी वैज्ञानिक उपलब्धि है।

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