Sat, 06 Dec 2025 14:24:53 - By : Tanishka upadhyay
वाराणसी में त्रेता युग से चली आ रही काशी की अंतरगृही यात्रा आज भी उसी श्रद्धा और आस्था के साथ निभाई जाती है। अगहन मास की चतुर्दशी पर हजारों श्रद्धालु 25 किलोमीटर लंबी परिक्रमा के लिए एक साथ निकलते हैं। झोरा कंधे पर और सिर पर बोरा रखे यह भक्त जब कतारों में चलते हैं, तो काशी की परंपरा और सनातन संस्कृति की गहराई अपने आप दिखाई देने लगती है। यह यात्रा केवल शारीरिक परिक्रमा नहीं मानी जाती, बल्कि इसे आत्मिक चिंतन और आत्मतत्व की खोज का मार्ग बताया जाता है।
श्रद्धालु मानते हैं कि इस परिक्रमा से मनसा, वाचा और कर्मणा से हुए पापों का क्षय होता है और जीवन में पुण्य की प्राप्ति होती है। काशीवासी ही नहीं, देश के विभिन्न हिस्सों से आए लोग भी अपने परिवार की समृद्धि और अपने मोक्ष की कामना लेकर इस यात्रा में शामिल होते हैं। ठंड और कठिन रास्तों की परवाह किए बिना 24 घंटे की अवधि में 75 देवविग्रहों की परिक्रमा की जाती है। यात्रा तीन महत्वपूर्ण खंडों विश्वेश्वर खंड, केदारेश्वर खंड और ओंकारेश्वर खंड से होकर गुजरती है, जिनका धार्मिक महत्व सदियों से माना जाता है।
यात्रा की शुरुआत मणिकर्णिका तीर्थ से होती है। यहां चक्र पुष्करिणी में स्नान कर श्रद्धालु मणिकर्णिकेश्वर महादेव का दर्शन करते हैं और फिर बाबा विश्वनाथ के मुक्तिमंडप में संकल्प लेकर यात्रा आरंभ करते हैं। इसके बाद श्रद्धालु अस्सी, लंका, खोजवां, बजरडीहा और मंडुवाडीह होते हुए नंगे पांव शिवनाम का जाप करते चलते हैं। सिद्धि विनायक, कंबलेश्वर, अश्वतरेश्वर और वासुकीश्वर जैसे प्रमुख स्थानों पर दर्शन करते हुए वे आगे बढ़ते हैं।
चौकाघाट पर परंपरागत बाटी चोखा का भोग अर्पित किया जाता है। कई श्रद्धालु यहां रात्रि विश्राम भी करते हैं। पूर्णिमा के दिन गंगा और वरुणा के संगम पर पहुंचकर यात्रा का अंतिम चरण पूरा किया जाता है। अंत में सभी श्रद्धालु मुक्तिमंडप लौटकर अपनी परिक्रमा पूरी करते हैं।
यह यात्रा केवल धर्म का स्वरूप नहीं, बल्कि काशी की सामाजिक एकता और सांस्कृतिक विरासत का प्रतीक भी मानी जाती है। बदलते समय के बावजूद यह परंपरा आज भी उसी भावना से निभाई जाती है, जो इसे अनोखा बनाती है। यह यात्रा लोगों को भरोसा दिलाती है कि आत्मिक शांति और मोक्ष की दिशा बाहरी मार्गों से नहीं, बल्कि अंतर्मन की यात्रा से मिलती है।
काशी की यह परिक्रमा सदियों पुरानी होते हुए भी आज के समय में उतनी ही प्रासंगिक है। यह न केवल आस्था का उत्सव है, बल्कि जीवन के गहरे मूल्यों की याद भी दिलाती है।