वाराणसी: कार्तिक मास में गंगा तटों पर जगमगाए हजारों आकाशदीप, पितरों के लिए परंपरा

वाराणसी में कार्तिक मास के दौरान गंगा घाटों पर हजारों आकाशदीप प्रज्वलित हो रहे हैं, यह पितरों की मुक्ति का प्राचीन प्रतीक है।

Sun, 12 Oct 2025 15:39:44 - By : Shriti Chatterjee

वाराणसी: कार्तिक मास के पावन अवसर पर काशी के गंगा तट इन दिनों हजारों आकाशदीपों की रोशनी से नहाए हुए हैं। जैसे ही संध्या गहराती है और गंगा आरती की मंत्रध्वनि घाटों पर गूंजती है, वैसे ही आकाशदीपों की कतारें अंधकार को चीरती हुई आकाश में टिमटिमाने लगती हैं। यह दृश्य न केवल भक्ति और श्रद्धा का प्रतीक है, बल्कि पीढ़ियों से चली आ रही उस मान्यता का भी प्रमाण है जो पितरों की मुक्ति और दिव्यता के मार्ग को आलोकित करने के लिए जानी जाती है।

कहते हैं कि काशी में आकाशदीप जलाने की परंपरा प्राचीन काल से चली आ रही है। इसका उल्लेख सनत्कुमार संहिता के कार्तिक महात्म्य के नौवें अध्याय में भी मिलता है, जहां तिल के तेल से भरे दीपों के दान का उल्लेख किया गया है। मान्यता है कि कार्तिक मास में इन दीपों के माध्यम से देवताओं और पितरों की राह को प्रकाशमान किया जाता है, ताकि उनके लोक तक आलोक का प्रवाह बना रहे। विद्वानों के अनुसार, आकाश सर्वव्यापी परमात्मा का प्रतीक है जबकि दीप रखने वाली करंड आत्मा का प्रतीक है। जब इस करंड में ज्ञान की बाती प्रज्वलित होती है, तब वंश का यश बढ़ता है और आत्मा को परमात्मा का सान्निध्य प्राप्त होता है।

गंगा के घाटों पर इन दिनों श्रद्धालु दूर-दूर से पहुंच रहे हैं। अनेक लोग स्वयं आकाशदीप जलाते हैं तो कई अपने परिजनों या पंडों के माध्यम से यह परंपरा निभाते हैं। माना जाता है कि जो व्यक्ति स्वयं काशी नहीं आ पाता, वह पंडों के माध्यम से दीपदान कर पुण्य अर्जित कर सकता है। यह परंपरा केवल धार्मिक नहीं, बल्कि जीवन की स्थिरता, संतुलन और आशा का भी प्रतीक मानी जाती है।

आकाशदीप जलाने की एक अन्य मान्यता यह भी है कि यह दीप मार्गदर्शन का प्रतीक हैं। पुराने समय में जब आवागमन का प्रमुख साधन नावें और नदियां हुआ करती थीं, तब ये दीप यात्रियों के लिए दिशा का संकेत बनते थे। अंधेरी रातों में गंगा के जल पर तैरते या आकाश में लटकते दीप यात्रियों को सुरक्षित किनारे तक पहुंचने की प्रेरणा देते थे।

काशी में बांस की लंबाई और आकार के अनुसार आकाशदीपों को तीन वर्गों में बांटा गया है। पुराणों के अनुसार, 20 हाथ लंबे बांस पर टंगे दीप को उत्तम, नौ हाथ वाले को मध्यम और पांच हाथ लंबे को कनिष्ठ माना गया है। बांस की कुल लंबाई के नवम भाग पर पताका बांधी जाती है, जिसमें तुला लटका कर एक छोटी पिटारी रखी जाती है। इसी पिटारी में तिल के तेल से भरा दीप जलाया जाता है। यह माना जाता है कि लंबी पताका और मोर पंख से सुसज्जित दीप विशेष रूप से भगवान विष्णु को प्रिय होता है।

गंगा सेवा निधि द्वारा इस परंपरा को एक नया आयाम 1999 में मिला, जब कारगिल विजय के बाद अमर शहीदों की स्मृति में आकाशदीप संकल्प का विस्तार कर इसे राष्ट्रीय स्वरूप दिया गया। तब से प्रत्येक वर्ष कार्तिक मास के दौरान देशभर के वीर सपूतों की याद में भी आकाशदीप प्रज्ज्वलित किए जाते हैं। यह आयोजन न केवल आध्यात्मिकता बल्कि राष्ट्रभक्ति का भी प्रतीक बन चुका है।

काशी के पंचगंगा स्थित श्रीमठ में आज भी एक अनोखी ऐतिहासिक धरोहर मौजूद है। वर्ष 1780 में इंदौर की महारानी अहिल्याबाई होल्कर ने यहां लाल पत्थर से एक विशाल हजारा का निर्माण कराया था। यह दीपस्तंभ एक हजार दीयों को एक साथ जलाने की व्यवस्था वाला है। देवदीपावली के अवसर पर जब इस दीपस्तंभ पर एक हजार दीये एक साथ टिमटिमाते हैं, तो यह दृश्य मानो धरती पर उतर आई गंगा तारों की तरह जगमगा उठती है।

काशी की यह परंपरा समय के साथ और भी सजीव हो गई है। अब यह केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं रहा, बल्कि जीवन के अंधकार से प्रकाश की ओर, निराशा से आशा की ओर बढ़ने का प्रतीक बन चुका है। गंगा के तट पर टिमटिमाते ये दीप मानो कह रहे हों कि ज्ञान और करुणा की ज्योति कभी न बुझे।

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