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वाराणसी: निजीकरण के खिलाफ बैंक कर्मचारियों की राष्ट्रव्यापी हड़ताल, कामकाज ठप, जनता परेशान

वाराणसी: निजीकरण के खिलाफ बैंक कर्मचारियों की राष्ट्रव्यापी हड़ताल, कामकाज ठप, जनता परेशान

केंद्र सरकार की आर्थिक नीतियों और सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों के निजीकरण के विरोध में बैंक कर्मचारियों ने राष्ट्रव्यापी हड़ताल की, जिससे वाराणसी में बैंकिंग सेवाएं ठप रहीं और जनता को भारी परेशानी हुई।

वाराणसी: केंद्र सरकार की आर्थिक नीतियों और सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों के निजीकरण के खिलाफ देशभर के बैंक कर्मचारियों ने मंगलवार को एक दिन की राष्ट्रव्यापी हड़ताल की। वाराणसी के रामनगर समेत विभिन्न जिलों में बैंक ऑफ बड़ौदा, पंजाब नेशनल बैंक, यूनियन बैंक, केनरा बैंक सहित कई सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में ताले लटकते नजर आए। इस हड़ताल का आह्वान ऑल इंडिया बैंक एम्प्लॉयीज एसोसिएशन (AIBEA) और यूनाइटेड फोरम ऑफ बैंक यूनियन्स (UFBU) ने किया था, जिसे बड़े पैमाने पर समर्थन मिला।

हड़ताल का व्यापक असर देखा गया, जिससे बैंकिंग सेवाएं पूरी तरह से ठप रहीं। आम जनता को नकद लेनदेन, चेक क्लीयरेंस, पासबुक अपडेट जैसी बुनियादी सुविधाओं के लिए भारी परेशानियों का सामना करना पड़ा। कई जगहों पर एटीएम सेवाएं भी बाधित रहीं, जिससे लोगों की दिक्कतें और बढ़ गईं। इस हड़ताल में सिर्फ कर्मचारी नहीं, बल्कि कई जगह ग्राहकों ने भी सरकार की आर्थिक नीतियों के खिलाफ नाराजगी जताई।

"यह सिर्फ बैंक कर्मचारियों की लड़ाई नहीं"

हड़ताल के दौरान बैंक कर्मचारियों ने संवाददाता रामू यादव से बातचीत में बताया कि उनका यह आंदोलन केवल वेतन, सुविधा या पदोन्नति की मांग तक सीमित नहीं है, बल्कि यह पूरे देश के मेहनतकश मजदूरों, किसानों, युवाओं और आम जनता के हितों की रक्षा के लिए किया गया कदम है। उनका कहना है कि केंद्र सरकार की नीतियां श्रमिक हितों की अनदेखी कर रही हैं और देश की सार्वजनिक संपत्तियों को चुपचाप निजी हाथों में सौंपा जा रहा है।

बैंक यूनियनों ने सरकार पर 'क्रोनी कैपिटलिज्म' यानी सांठगांठ आधारित पूंजीवाद को बढ़ावा देने का आरोप लगाते हुए कहा कि यह प्रक्रिया देश की आर्थिक संप्रभुता के लिए खतरा बनती जा रही है। उनका कहना है कि सरकार का फोकस देश के श्रमिकों और कर्मचारियों के अधिकारों को मजबूत करने की बजाय, कॉर्पोरेट हितों को साधने पर है। उन्होंने कहा, "हम देश की पूंजी को कुछ गिने-चुने उद्योगपतियों के हवाले नहीं होने देंगे।"

चार प्रमुख मांगों पर अड़े कर्मचारी

हड़ताल कर रहे बैंक कर्मचारियों ने स्पष्ट शब्दों में चार प्रमुख मांगें सरकार के समक्ष रखीं-
1. सभी सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों और उपक्रमों के निजीकरण की प्रक्रिया पर तत्काल रोक लगाई जाए।
2. बीमा क्षेत्र में 100% प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (FDI) के प्रस्ताव को रद्द किया जाए।
3. श्रमिक संगठनों के अधिकारों को पूरी तरह संरक्षित किया जाए और उन्हें कमजोर करने वाले किसी भी प्रयास पर रोक लगे।
4. सांठगांठ आधारित पूंजीवाद के खिलाफ सख्त और पारदर्शी नीतिगत कदम उठाए जाएं।

हमारे रामनगर संवाददाता रामू यादव के मुताबिक, बैंक हड़ताल के चलते क्षेत्र के सभी सार्वजनिक बैंकों में ताले लटकते नजर आए। लेन-देन के लिए पहुंचे लोग मायूस होकर लौट गए। किसी को इलाज के लिए पैसे निकालने थे, तो कोई व्यापार या नौकरी के काम से आया था। जमा और निकासी दोनों ही सेवाएं ठप रहीं, जिससे लोगों के चेहरे पर साफ मायूसी और चिंता झलकती रही।

वहीं बैंक कर्मचारियों ने हमारे संवाददाता से बताया, कि सरकार धीरे-धीरे श्रम कानूनों को शिथिल कर रही है, जिससे न केवल नौकरी की स्थिरता खतरे में है, बल्कि श्रमिकों के अधिकार भी कमजोर हो रहे हैं। यूनियनों ने चेतावनी दी कि यदि मांगें नहीं मानी गईं, तो आंदोलन को और भी व्यापक और तीव्र रूप दिया जाएगा।

आर्थिक ही नहीं, सामाजिक चेतना का आंदोलन

इस आंदोलन को केवल आर्थिक मांगों तक सीमित न मानते हुए कर्मचारियों ने इसे एक सामाजिक चेतना का हिस्सा बताया। उनका कहना है कि सरकार द्वारा लगातार की जा रही नीतिगत ढील का असर सिर्फ बैंकिंग क्षेत्र तक सीमित नहीं है, बल्कि इसका प्रभाव पूरे देश की सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था पर पड़ रहा है। "हम अपनी नौकरियों से अधिक इस देश की आम जनता के हक की लड़ाई लड़ रहे हैं," एक बैंक कर्मचारी ने बताया।

बैंक यूनियनों ने स्पष्ट संकेत दिए हैं कि यह हड़ताल कोई अंतिम कदम नहीं है, बल्कि लंबी लड़ाई की शुरुआत है। उन्होंने कहा कि यदि केंद्र सरकार निजीकरण की प्रक्रिया और श्रम-विरोधी नीतियों से पीछे नहीं हटी, तो आने वाले दिनों में बड़ा जनांदोलन खड़ा किया जाएगा। यूनियनों की रणनीति है कि वे देश के हर तबके को साथ लेकर इस मुद्दे को राष्ट्रीय बहस के केंद्र में लाएं और जनचेतना के माध्यम से सरकार पर दबाव बनाएं।

एक ओर जहां सरकार अपनी आर्थिक सुधार की नीतियों को विकास का रास्ता बता रही है, वहीं दूसरी ओर देशभर के लाखों बैंक कर्मचारी इस 'विकास' के मॉडल को आम जनता के लिए घातक मानते हुए सड़कों पर उतर आए हैं। आने वाले समय में यदि सरकार और यूनियनों के बीच कोई ठोस संवाद नहीं हुआ, तो यह असंतोष एक बड़े सामाजिक आंदोलन का रूप ले सकता है।

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