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वाराणसी: राज्यपाल लक्ष्मण प्रसाद आचार्य ने परिवार संग किया माँ अन्नपूर्णा मंदिर में दर्शन-पूजन

वाराणसी: राज्यपाल लक्ष्मण प्रसाद आचार्य ने परिवार संग किया माँ अन्नपूर्णा मंदिर में दर्शन-पूजन

राज्यपाल लक्ष्मण प्रसाद आचार्य जी ने वाराणसी स्थित माँ अन्नपूर्णा मठ मंदिर में परिवार संग दर्शन-पूजन किया, अपनी आस्था व सादगी दर्शाई.

वाराणसी: पवित्र गंगा के तट पर बसी इस प्राचीन नगरी में आज एक ऐसा सच्चा और शांतिपूर्ण दृश्य देखने को मिला, जिसने बिना कुछ कहे भी बहुत कुछ कह दिया कि सादगी भी कभी-कभी सबसे बड़ी महानता होती है।
वाराणसी में स्थित माँ अन्नपूर्णा मठ मंदिर में आज एक ऐसे दर्शन-पूजन का आयोजन हुआ, जो न केवल संस्कृति-आस्था का प्रतीक बना बल्कि इस धारणा को भी पुष्ट कर गया कि आस्था यदि सहजता से जुड़ी हो, तो उसका प्रभाव स्थायी होता है।

आज जब महामहिम राज्यपाल लक्ष्मण आचार्य जी अपने परिवार के साथ मंदिर पहुँचे, मंदिर के गर्भगृह में प्रवेश करते ही वातावरण में शांति और श्रद्धा की स्पष्ट लय बनी-रही। मंदिर के महंत शंकर पुरी महाराज ने उन्हें अंगवस्त्र, माँ अन्नपूर्णा का प्रतीक चिन्ह तथा अन्नकूट प्रसाद अर्पित किया। इस अनुष्ठान ने दर्शकों को यह अहसास कराया कि यहाँ केवल औपचारिकता नहीं थी। यह एक आस्था-उत्सव था, जिसमे राज्यपाल का मान-सम्मान और महंत का सुरुचिपूर्ण आतिथ्य मिलकर एक दिव्य छवि बना गए।

महामहिम राज्यपाल आचार्य जी ने इस अवसर पर कहा कि “यह मंदिर हमारी संस्कृति और हमारी आस्था का जीवंत प्रतीक है। परिवार के साथ यहाँ आकर मैंने महसूस किया कि यह जीवन की भाग-दौड़ से अलग एक शांत क्षण है, जिसमें आत्मा को विश्राम मिलता है।” उनकी यह बात स्वयं उनकी जीवनशैली का आइना बनी। राजनीति में सक्रिय, समाज-सेवा में समर्पित और जन्मभूमि में लौटकर एक साधारण भक्त की तरह खड़े।

महंत शंकर पुरी महाराज ने इस अवसर पर बताया कि “यह मठ सदियों से इस नगर की आध्यात्मिक विरासत का हिस्सा रहा है। आज यहाँ राज्यपाल महोदय का आगमन और साथ ही उनके परिवार का दर्शन हमारे लिए गर्व की बात है। अंगवस्त्र तथा प्रतीक चिन्ह उनके सम्मान के प्रतीक हैं, और अन्नकूट-प्रसाद हमारे समाज में ‘सामूहिक भोजन और सेवा’ की भावना को आगे ले जाता है।” यह वक्तव्य मंदिर-परिवार के समर्पण और उत्सव की भाव-भूमि को उकेरता रहा।

इस पूरे आयोज­न में एक और बात देखने लायक थी, वो थी महामहिम राज्यपाल आचार्य जी की सादगी। महोदय ने किसी विशेष भव्यता का प्रदर्शन नहीं किया, उन्होंने शिष्टाचार का निर्वाह सहज रूप से किया, अभिजात प्रवेश की बजाय भक्त-शाली में खरे दिखे। आम भक्तों-वोापिसियों के बीच वे सहजता से मिलते-बात करते दिखे, मंदिर के प्रांग­ण में बच्चों-पौधों की ओर देख-देख कर मुस्कुराते और भक्तों-से आशीर्वाद लेते। इस दृष्टि से यह दर्शन-पूजन सिर्फ एक औपचारिक कार्यक्रम नहीं रहा, बल्कि एक जीवंत उदाहरण बन गया, जहाँ इतने बड़े पद पर रहते हुए भी महामहिम जी ने साधारण श्रद्धालु की तरह आस्था व्यक्त की।

वाराणसी की गूँज में इस घटना का सामाजिक-सांस्कृतिक सन्दर्भ भी उतना ही महत्वपूर्ण है। आज यदि कोई उच्च पदाधिकारी अपने गृह नगर के मंदिर में इस तरह आकर सार्वजनिक रूप से दर्शन करता है, तो यह एक संकेत है कि राजनीति-शासन के बीच भी ‘लोक-भावना’ को स्थान मिल सकता है; कि आस्था-और-सेवा की बातें सिर्फ शब्द नहीं, अनुभव योग्य बन सकती हैं। लोगों ने इस दृश्य को उत्साह से देखा, कैमरों ने यह पल कैद किया, लेकिन उससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण यह था कि मंदिर की सीढ़ियों पर बैठे वृद्ध-वृद्धाएं, भक्त-युवा, परिवार-सदस्य सभी ने इस आस्था-भरे कार्यक्रम को अपनी-अपनी आँखों से महसूस किया।

यह दिन महामहिम राज्यपाल आचार्य की के लिए भी विशेष रहा क्योंकि जन्मभूमि में आकर, परिवार के साथ, आस्था के बीच इस तरह खड़े होना एक व्यक्तिगत-पल भी था। उन्होंने बाद में मंदिर की पुस्तक-गृह में एक पुस्‍तक पर हस्ताक्षर किये, अपनी भावनाएँ व्यक्त कीं और कहा कि ऐसी भीड़-भाड़ और भाग-दौड़ वाली दुनिया में, ठहराव के ये कुछ पल ही हमें हमारी जड़ों-और-आस्थाओं से जोड़ते हैं।

आज का यह दर्शन-पूजन एक पावन यात्रा से कम नहीं था, एक सार्वजनिक-घटना से अधिक, एक निजी-क्षण था, जिसमें उच्च पद की गरिमा और साधारण श्रद्धालु की मिट्टी एकसाथ खड़ी दिखी। वाराणसी की कुशीनगर-बोली-हवाओं में अब यह घटना एक प्रेरणा-कथा बन चुकी है, कि आस्था में भव्यता नहीं, सादगी में शक्ति होती है।

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